ग़ज़ल _ थी पुरानी सी जो मटकी ,वो न फूटी होती ,
सावन
Sarla Sarla Singh "Snigdha "
मैं सोचता हूँ आखिर कौन हूॅ॑ मैं
सुनते भी रहे तुमको मौन भी रहे हरदम।
स्त्री सबकी चुगली अपने पसंदीदा पुरुष से ज़रूर करती है
इसी खिड़की से प्रतीक्षारत होकर निहारने की तरह ही
सूख कर कौन यहां खास ,काँटा हुआ है...
मोहब्बत ने तेरी मुझे है सँवारा
singh kunwar sarvendra vikram
*सस्ती सबसे चाय है, गरम समोसा साथ (कुंडलिया)*
बरसने लगे जो कभी ये बादल I
बुंदेली दोहा प्रतियोगिता -183 के दोहे
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
पहले जो मेरा यार था वो अब नहीं रहा।