हम जियें या मरें तुम्हें क्या फर्क है
चले आते हैं उलटे पाँव कई मंज़िलों से हम
धन तो विष की बेल है, तन मिट्टी का ढेर ।
ये अमलतास खुद में कुछ ख़ास!
23/78.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
परामर्श शुल्क –व्यंग रचना
अरे धर्म पर हंसने वालों
Anamika Tiwari 'annpurna '
*एक बल्ब घर के बाहर भी, रोज जलाना अच्छा है (हिंदी गजल)*
जनता
डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
ग़ज़ल _ सरहदों पर कहां भला जाए । श्रृद्धांजलि 😢
सृष्टि का कण - कण शिवमय है।
हमसे तुम वजनदार हो तो क्या हुआ,
నమో నమో నారసింహ
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'