दर्पण

घूमाकर देखो नजरों को नजारा कितना अच्छा है,
नदी में नाव है फिर भी किनारा कितना अच्छा है।
वो दर्पण जिसमें खिलती थी हमारी प्यारी सी यादें
हमारा टूटकर बिखरा, तुम्हारा कितना अच्छा है।।
✍️✍️✍️✍️✍️
रचना- मौलिक एवं स्वरचित
निकेश कुमार ठाकुर
संप्रति- कटिहार (बिहार)
सं०-9534148597