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31 May 2024 · 1 min read

खुद को पागल मान रहा हु

“खुद को पागल’ मान रहा हूँ

वक्त की बहती धार में आज खुद को सम्भाल रहा हूँ
जिन्दगी के निसार में आज तड़पकर खुद को उबाल रहा हूँ,
पागलपन के लिवाज में खुद को पागल मान रहा हूँ

मन की बैचेनी तार में उलझकर खुद को सम्भाल रहा हूँ
वक्त की पडी मार में बिखरकर खुद को सम्भाल रहा हूँ,
जिम्मेदारी के एहसास में खुद को पागल मान रहा हूँ
मेहनत कश मन के वार से लडकर आज सफलता डाल रहा हूँ
दूर खडी नसीब का ताबीज इस बार से बचाकर मुझे लज्जा में डाल रहा है।
इसी सोच के प्रभाव से मैं खुद को पागल मान रहा हूँ
प्रस्ताव आए मेरे पास प्रभाव से ठुकरा कर नसीब को खतरे में डाल रहा हूँ
आवक-जावक चलती रही स्वभाव से समभाकर तरकीब से निकाल रहा हूँ
यही सोच आज स्वाभाव में परे रहकर
खुद को पागल मान रही है।
तेरा-मेरा अपना पराया के खार से आज मुझ भोली सुरत को फांस रहा है।
कुंवारा हूँ बालपन की बैशाब्बी को लार से जल्दी लगी मुझ सांड़ को खुट में फांद रहा है।
खुद का तो पत्ता नहीं उसके स्वभाव से देख
आज खुद को पागल मान रहा हूँ

1 Like · 181 Views
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