Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
11 May 2024 · 5 min read

अपना अपना कर्म

जानकीनाथ की तीन संतानों में सावित्री दूसरी संतान थी। पहली संतान पुत्र और तीसरी पुत्री थी। सावित्री बचपन से ही बड़ी होनहार थी। कहावत ‘होनहार वीरवान के होत है चिकने पात’ को वह पूरी तरह चरितार्थ करती थी। वैसे तो सावित्री के बचपन के आरम्भिक दिन ग्रामीण परिवेश में बीते, मगर शीघ्र ही अपने माता-पिता के साथ वह दिल्ली चली गई। वहां पहले तो किराए के मकान में कुछ वर्षों तक गुजारा किया, मगर जानकीनाथ ने नांगलोई इलाके में अपना मकान बना लिया और पूरा परिवार अपने मकान में खुशहाल जिंदगी व्यतीत करने लगा।

कहते है कि लड़कियां पानी के बाढ़ की तरह बढ़ती है और शीघ्र सयानी हो जाती है। सावित्री भी इसका अपवाद नहीं थी। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद उसने ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश लिया यह वही समय होता है जब लड़कियां किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करती है। सावित्री भी अब पूर्ण युवती बनती जा रही थी। उसके तन मन में भी परिवर्तन होता जा रहा था। यह वह समय होता है जब युवतियों के पांव डगमगाने लगते हैं। गलत संगति और युवकों के इश्क-जाल में पड़कर वे अपनी जिंदगी बर्बाद कर लेती है, जिससे उनके माता पिता की जिंदगी दुभर हो जाती है। उनको बिना कोई पाप या अपराध किए अपराधियों की भांति मुंह छिपाकर रहना पड़ता है। लोग तरह-तरह के ताने देते हैं। मगर सावित्री इन सब से अलग एक शांत और सौम्य स्वभाव की बालिका थी। उसपर इन सब बातों का असर नहीं हुआ। माता-पिता से बच्चों को जैसा संस्कार मिलता है, वे वैसा ही बनते हैं।

प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद सावित्री ने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्रातक, शिक्षा स्रातक और नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त किया और जिविकोपार्जन के लिए शिक्षा क्षेत्र को चुना। आरम्भिक वर्षों में निजी विद्यालयों में अध्यापन कार्य करने के पश्चात सरकारी विद्यालयों में बतौर औपबंधिक और अतिथि शिक्षक के रूप में अध्यापन कार्य किया। कहते हैं कि लड़कियां पराई धन होती है। उसे एक न एक दिन अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपनी नई जिंदगी बसाने नए घर जाना पड़ता है। सावित्री के जिंदगी में भी वह दिन आ गया। पिता जानकीनाथ ने एक योग्य वर दुढ़कर अपनी पुत्री के हाथ पिले कर दिए।

सावित्री के ससुर मनोहरलाल एक सुलझे हुए इंसान थे। कोई भी कदम फूंक-फूंककर रखते थे ताकि समाज में कोई उच्च-नीच न हो। परंतु सास शकुन्तला देवी, जो कि प्रारम्भिक विद्यालय में एक शिक्षिका थी, बात-बात में सावित्री को झिड़क देती थी। पति सतीश कुमार, जो कि दो भाइयों में छोटा था, अपनी मां का बड़ा दुलारा था। जो मां कहती, आंख मूंदकर मान लेता था। सावित्री को कष्ट देने में मां का पूरा साथ देता था। दरअसल सावित्री को घर के कार्यों का उसे कोई तजुर्बा नहीं था। वह अब तक की अपनी जिंदगी पठन-पाठन और विद्यालयों और महाविद्यालयों में ही गुजारी थी। उसे घरेलू कार्यों यथा चुल्हा-चौका, सूप से फटकना, सिलाई-कढ़ाई, कुटिया-पिसिया, आदि का अनुभव नहीं था। मां भी अपनी पढ़ती और आगे बढ़ती बिटिया को इन सब कार्यों में फंसाकर उसके विकास के गाड़ी को अवरुद्ध करना नहीं चाहती थी। परंतु शकुन्तला देवी एक ग्रामीण महिला थी। उसे पढ़ी-लिखी बहु की जरूरत नहीं थी। उसे तो ऐसी बहु चाहिए थी जो घर का सारा काम करे। इसके लिए वह बात-बात पर सावित्री को ताने देती थी। सावित्री इन सब बातों से तंग आकर अपने पिता के घर चली आई।

इसी बीच सावित्री ने अपनी पहली संतान एक कन्या को जन्म दिया। इसने आग में घी का काम किया। शकुन्तला देवी को सावित्री को कोंसने का एक और नया मौका मिल गया। कहने लगी कि बहु अपनी बेटी को भी अपनी तरह शहरी मेम बनाना। घर का कोई काम मत सिखाना। शिकायत होगी। अरे मैं तो भूल ही गई। तुम सिखाओगी भी क्या। तुमको तो खुद कुछ करने नहीं आता। कभी कहती, जन्म भी दिया तो बेटी को। मैं समझी थी बेटा होगा तो कुल-खानदान आगे बढ़ेगा। मेरे बेटे का नाम होगा। इसने तो बेटी को जन्म दिया है बेटी को। इस तरह की बातें सावित्री को हमेशा ही सुनने को मिलती थी। इस आधुनिक युग में जब बेटियां विकास के किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है, बल्कि बेटों से दो कदम आगे ही रहती है, समाज के ऐसे बुद्धिजीवी लोगों, एक शिक्षिका की ऐसी सोच होनी बड़े शर्म की बात है। सतीश जब सावित्री के पास होता तो उसकी हां में हां मिलाता। परंतु मां के पास जाते ही फिर वही राग अलापने लगता। बेचारी सावित्री की जिंदगी बड़े ही मुश्किल दौर से गुजर रही थी।
कहा जाता है कि जिसका कोई नहीं होता उसे ईश्वर किसी न किसी रूप में आकर सहारा पहुंचाते हैं। एक और बड़ी बात यह कि पढ़ाई-लिखाई कभी बेकार नहीं जाती। मेहनत का फल अवश्य प्राप्त होता है। सावित्री की किस्मत ने भी साथ दिया। शिक्षा काम आई। उच्च माध्यमिक शिक्षा विभाग में बिहार में शिक्षिका के पद पर उसकी नियुक्ति हो गई। सरकारी नौकरी की बात सुनकर शकुन्तला देवी और सतीश सावित्री का हाल-चाल पुछने आए। परंतु सावित्री यह भलीभांति समझती थी कि यह उनका क्षणिक प्रेम है जो सिर्फ नौकरी को देखकर पैसे प्राप्त करने के लिए है। वह उनके बहकावे में नहीं आई। सावित्री के माता-पिता नए नौकरी पाने और उसमें योगदान करने में सावित्री की सहायता किए।

प्रशिक्षण कालीन अध्यापन कार्य के लिए उसे जो विद्यालय प्राप्त हुआ वहां ईश्वर प्रदत्त सहयोगी के रूप में एक वरिष्ठ शिक्षक, जो एक वरिष्ठ साहित्यकार भी थे, का साथ प्राप्त हुआ, जो वहां उसके लिए एक सहयोगी, साथी, गुरु और संरक्षक सब कुछ बने। जीवनोपयोगी शिक्षा, मार्गदर्शन, साहित्य के प्रति अभिरुचि जीवन के प्रति आशा का संचार, आदि उसे प्राप्त हुआ। वे सावित्री को अपनी शिष्या मानते और सावित्री भी उन्हें अपना गुरु मानती थी। जीवन जीने की कला, वैदिक धर्म में आस्था, पति को परमेश्वर सदृश मानने की सीख प्राप्त हुई। वे उसे सावित्री-सत्यवान, सीता, द्रौपदी, तारा, कुंती, जैवंता बाई, जीजाबाई, आदि वीरांगनाओं की कहानियां सुनाकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया करते थे।

सावित्री की कर्तव्यनिष्ठा, आत्मविश्वास, मेहनत, ईश्वर कृपा और नए गुरुजी के मार्गदर्शन से उसका जीवन धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा। ईश्वर के प्रति आस्था और गुरुजी के विश्वास और आशीर्वाद से सावित्री को भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। शकुन्तला देवी का विचार भी नारी समाज और महिलाओं के प्रति बदला। सावित्री भी अब जिंदगी की सच्चाई समझ चुकी थी। वह यह तथ्य जान चुकी थी कि सबका विचार एक समान नहीं होता। जिंदगी में उतार-चढाव आते रहते हैं। असली जिंदगी तो इन उतार-चढ़ावों और सबके साथ मिलजुल कर रहने में है। शकुन्तला देवी जब आदर सहित उसे लेने आई तो वह खुशी-खुशी ससुराल चली गई।

अपने माता-पिता और गुरुजी की शिक्षाओं को वह आजीवन गांठ बांधकर रही। आशा और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ी। जीवन में एक सफल और लब्धप्रतिष्ठित शिक्षिका और हिंदी साहित्यकार बनी। साथ ही अपने बच्चों को भी विद्यालयी शिक्षा देने के साथ ही साथ दैनिक जीवन की सभी महत्वपूर्ण बातें सिखाई।

रचनाकार…..
मांगीलाल बारूपाल (M.G.)
खाजूवाला, बीकानेर (राज.)

14 Likes · 243 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.

You may also like these posts

#2024
#2024
*प्रणय प्रभात*
बुंदेली साहित्य- राना लिधौरी के दोहे
बुंदेली साहित्य- राना लिधौरी के दोहे
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
स्वयं सेवा से जुड़ जाइए।
स्वयं सेवा से जुड़ जाइए।
Rj Anand Prajapati
"मतदाता"
Khajan Singh Nain
डॉ0 रामबली मिश्र की रचनाएं
डॉ0 रामबली मिश्र की रचनाएं
Rambali Mishra
इमारतों में जो रहते हैं
इमारतों में जो रहते हैं
Chitra Bisht
पापा
पापा
ARPANA singh
ख़ुदा बताया करती थी
ख़ुदा बताया करती थी
Madhuyanka Raj
जीवन यात्रा हमें सिखाती है कि सबसे बड़ी शक्ति हमारे भीतर निह
जीवन यात्रा हमें सिखाती है कि सबसे बड़ी शक्ति हमारे भीतर निह
पूर्वार्थ देव
किसी भी कीमत पर तेरी होना चाहती हूं
किसी भी कीमत पर तेरी होना चाहती हूं
Jyoti Roshni
*काश पूछ कर पाकिस्तान बनाते (गीत)*
*काश पूछ कर पाकिस्तान बनाते (गीत)*
Ravi Prakash
महान लोग साधारण लोग होते हैं ।
महान लोग साधारण लोग होते हैं ।
P S Dhami
उजड़ें हुए चमन की पहचान हो गये हम ,
उजड़ें हुए चमन की पहचान हो गये हम ,
Phool gufran
शब्दों की मशाल
शब्दों की मशाल
Dr. Rajeev Jain
सद्विचार
सद्विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
" चाहत "
Dr. Kishan tandon kranti
टिप्पणी
टिप्पणी
Adha Deshwal
ज़ेहन से
ज़ेहन से
हिमांशु Kulshrestha
समस्या विकट नहीं है लेकिन
समस्या विकट नहीं है लेकिन
सोनम पुनीत दुबे "सौम्या"
दहेज की जरूरत नही
दहेज की जरूरत नही
भरत कुमार सोलंकी
मेरा भारत बदल रहा है,
मेरा भारत बदल रहा है,
Jaikrishan Uniyal
4095.💐 *पूर्णिका* 💐
4095.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
कुछ हम निभाते रहे, कुछ वो निभाते रहे
कुछ हम निभाते रहे, कुछ वो निभाते रहे
Shreedhar
कहां बैठे कोई , संग तेरे यूं दरिया निहार कर,
कहां बैठे कोई , संग तेरे यूं दरिया निहार कर,
shubham saroj
"अयोध्या की पावन नगरी"
राकेश चौरसिया
अपने विरुद्ध संघर्ष
अपने विरुद्ध संघर्ष
Rahul Singh
सबके सुख में अपना भी सुकून है
सबके सुख में अपना भी सुकून है
Amaro
Price less मोहब्बत 💔
Price less मोहब्बत 💔
Rohit yadav
ना जाने कौन सी बस्ती ,जहाँ उड़कर मैं आयी हूँ ,
ना जाने कौन सी बस्ती ,जहाँ उड़कर मैं आयी हूँ ,
Neelofar Khan
आजादी  भी अनुशासित हो।
आजादी भी अनुशासित हो।
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
Loading...