14— 🌸अस्तित्व का संकट 🌸

” अस्तित्व .”🌸
—-====—
चलो फिर सोचें हम कहाँ आ गये हैं.
हर ओर वीरानियाँ क्यूँ छायी हुईं हैं ?
बस्तियाँ बसीं पर खामोशियाँ पसरी हैं.
हवा में ताज़गी नहीं जो जिंदगी दे पाए
आसमान को देखो जो मौन उदास है
ना बादलों की आहट, ना आमद हुई है
शुष्क हवा कह रही कि मौसम बदल रहे है
बाढ़ – सूखे के आपदा जब -तब सताती
अंधा हो गया है इंसान अपने स्वार्थ में .
लालच से कर दिया खोखला ज़मीं को.
ढूंढता रहा कोयला, कभी हीरा कभी कुछ और
खोद धरती की गोद बेच डाली वन सम्पदा
उडड़ गए वनवासी वे बेघर हो रहे हैं
सदियों से बने घर- घरौँदे मिट गए हैं
ना जाने कितने चल दिये अपने घरों से.
शाख के टूटे -झरे पत्तों से वो बिखर गये.हैं
हम ही हैं कसूरवार ये हमने क्या कर दिया?
जो अब होश आये तो शायद गलती मुआफ हो
न जलें जंगल, न कटें पेड़ -न मिटे हरियाली
बिन जल- जंगल -ज़मीन जीवन चक्र हैअधूरा
जन,वन,वन्य जीवन -हम तब साथ रह सकेंगे
जब धर्म- कर्म से संकल्प्ति हो प्रकृति से जुड़ेंगे ।
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महिमा शुक्ला
9589024135।
इंदौर (म.प्र )459002
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अस्तित्व .”🌸
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चलो फिर सोचें हम कहाँ आ गये हैं.
हर ओर वीरानियाँ क्यूँ छायी हुईं हैं ?
बस्तियाँ बसीं पर खामोशियाँ पसरी हैं.
हवा में ताज़गी नहीं जो जिंदगी दे पाए
हम ही हैं कसूरवार ये हमने क्या कर दिया?
जो अब होश में आयें तो गलती मुआफ हो
आसमान को देखो जो मौन उदास है
ना बादलों की आहट, न आमद हुई है
शुष्क हवा कह रही कि मौसम बदल रहे है
बाढ़ – सूखे के आपदा जब -तब सताती है
अंधा हो गया है इंसान अपने स्वार्थ में .
लालच से कर दिया खोखला ज़मीन को.
ढूंढता रहता कोयला, कभी हीरा कभी कुछ और
खोद धरती की गोद बेच डाली वन सम्पदा
उजड़ गए वनवासी वे बेघर हो रहे हैं
सदियों से बने घर- घरौँदे मिट गए हैं
ना जाने कितने चल दिये अपने घरों से.
शाख के टूटे -झरे पत्तों से वो बिखर गये.
न जलें जंगल, न कटें पेड़ -न मिटे हरियाली
बिन जल- जंगल -ज़मीन जीवन चक्र हैअधूरा
जन,वन,वन्य जीवन हम तब ही साथ रह सकेंगे
जब धर्म- कर्म से संकल्प्ति हो प्रकृति से जुड़ेंगे ।
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