धार्मिक तथ्य और यथार्थ जीवन तथ्यों के बीच विरोधाभास
मुझे समझ नहीं आ रहा मैं अपनी बातें कैसे शुरू करूँ, इसलिए एक उदाहरण के साथ प्रारंभ करता हूँ, अगर दस प्रकार की भिन्न भाषा भाषी लोगों के सामने एक आम रख दिया जाय तो सभी उस आम को भिन्न-भिन्न नाम से संबोधित करेंगे, हर कोई अपनी भाषा के नाम को सरल और आम की प्रकृति से जोड़कर बताएगा और उसे ही सबसे अच्छा कहेगा, किंतु आम के ऊपर उनके नामों का या विचारों का कोई फर्क नहीं पड़ेगा, वह जैसा है, जिस रंग का है, जितना मीठा है, उतना ही बना रहेगा। उसी भाँति इस जगत को बनाने वाला ईश्वर भी उसी आम के समान है और भिन्न-भिन्न धर्म उन्हीं भिन्न-भिन्न दस भाषा भाषी लोगों के समान है। फिर चाहे वह उसे ब्रह्म कहें, खुदा कहें, गॉड कहें, यहोवा कहें या फिर अन्य कुछ भी उसपर भी उसके इन नामों का कोई फर्क नहीं पड़ता होगा, फिर अलग-अलग धार्मिक कर्मकांडों से, वो भी एकदम विपरीत कर्मकांडों से स्रष्टि निर्माता कैसे प्रभावित हो जाता है..?
हिंदू धार्मिक कर्मकांडों में आचरण की शुद्धता पर बहुत बल दिया जाता है यह अच्छा भी है किंतु समझ नहीं आता कि प्रायोगिक स्तर पर यह कितना कारगर है क्योंकि हिंदू धर्मशास्त्री माँस भक्षण, शराब सेवन से हमेशा मना करते हैं और बताते हैं कि इससे हमारी बुद्धि भ्रष्ट होती है, किंतु आज वर्तमान में देखें तो समस्त विश्व तकनीकी के जिस स्तर पर खड़ा है, जीवन की दैनिक सुविधाओं के जिस स्तर पर खड़ा है, वो सब उन्हीं माँस भक्षी और शराब, सिगरेट का सेवन करने वाले लोगों की मेहनत का ही परिणाम है, फिर चाहे उसमें मोबाइल हो, टीवी हो, कम्प्यूटर हो, सेटेलाइट, कार, हवाई जहाज कुछ भी क्यों हो सब उन्हीं की ही देन हैं, और हम जैसे शुद्ध आचरण करने वालों ने, माँस नहीं खाते, शराब नहीं पीते, धर्म अनुसार पति-पत्नी व्रत का पालन करते हैं, उन्होंने वर्तमान समय के समाज क्या दिया, हम शुद्ध आचरण करने वालों का वर्तमान समाज को क्या योगदान हैं, अगर देखें तो ना के बराबर दिखता है। जीवन की दैनिक सुविधाओं की तकनीकी भी हम अपने स्तर पर विकसित नहीं कर पाए हैं और उन्हीं लोगों के ऊपर हम निर्भर हैं जो आचरण के स्तर पर हम से निकृष्ट हैं। हम एकादसी, पूर्णिमा, मंगलवार, सोमवार व्रत रख रख क्या प्राप्त किया, कुछ नहीं। जबकि पश्चिमी लोगों ने रात भर जागकर, चिकन, बीफ, मटन, पोर्क, सेम्पन और सिगरेट पीकर अंतरिक्ष तक में अपना लोहा मनवा लिया। यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि हमें स्वर्ग मिलेगा, हमको भगवत प्राप्ति होगी, किंतु उस स्वर्ग और भगवत का क्या करेंगे जो वर्तमान को ही कष्ट झेलकर नरक भोगकर मिले। हमको मोक्ष मिलेगा, मान लिया मिलेगा किंतु एक के मोक्ष से कितनों को लाभ हुआ, क्या उनके सभी चेलों को मोक्ष मिल जाएगा..? नहीं कभी नहीं..? हम कहते हैं हम योग, उपवास, भगवत ध्यान से जीवन समझते हैं, मगर कौन सा जीवन समझते हैं, बस यही कि हमको माला जपने दो और तुम शांत रहो, क्या इससे समाज का उद्धार होगा, अगर सभही माला जपने लगे तो क्या समाज भूखा नहीं मर जाएगा। साधु सभी को माला जपने की कहते हैं क्योंकि उनको पता है कोई नहीं जपेगा, अगर सभी जपना शुरू कर दें तो फिर साधु उनको गृहस्थ की कहेंगे। साधु वीर्य संचय की बात करते हैं किंतु वीर्य संचय से क्या होता है क्या उनका तीसरा नेत्र खुल जाता है..? कहते हैं कि बहुत शक्तियां मिलती हैं, मान लिया मिलती हैं तो फिर उन शक्तियों को छिपा कर क्यों रखा जाता है, उनको समाज उद्धार के लिए प्रयोग क्यों नहीं किया जाता, जैसे अशुद्ध आचरण वाले लोगों ने मांस, शराब, मैथुन करते हुए संसार को फ्रिज दिया और फ्रिज ने सभी के जीवन को आसान बनाया, क्या कभी किसी ब्रह्मलीन ने ऐसा किया, कि बीमार व्यक्ति को एक मंत्र दिया और उसकी किडनी से स्टोन बाहर हो गया।
आइंस्टीन, टेस्ला, फैराडे, मैडम क्यूरी, हॉकिंस, ओपनहाइमर, न्यूटन, गैलीलियों इत्यादि सभी हमारे अनुसार असुद्ध थे फिर भी हम अभी वेदों तक ही सीमित हैं जो दिमाग की शांति के लिए ठीक है किंतु समाजिक दैनिक जरूरतों को लिए उनकी क्या उपयोगिता शिद्ध हुई..? आज हम अगर पश्चिमी वैज्ञानिकों की सभी देन का बहिष्कार कर दें तो हम पुनः पौराणिक युग में पहुँच जाएंगे। मैं धर्म का या धार्मिक आस्था के खिलाफ नहीं हूँ किंतु उनकी उपयोगिता पर समझ नहीं पा रहा। अगर ब्रह्म के स्तर पर जो सही है या गलत है तो वह पूरे विश्व के लोगों के लिए उतना ही गलत होना चाहिए जो एक खास धर्म के लोगों के लिए होना चाहिए, क्योंकि आम तो आम ही है फिर चाहे आप उसे किसी भी नाम से क्यों ना पुकारो।
अगर किसी भी व्यक्ति की धार्मिक आस्था को ठेस पहुँची हो तो मुझे माफ़ करना किंतु उनको भी सोचना चहिए कि उनकी धार्मिक आध्यात्मिक कर्मकांडों ने उनके जीवन को उनके ही स्तर पर कितना सुविधायोग्य बनाया है। ब्रह्म को पाना विचार है किंतु उसे पाकर समाज को तुम्हारी योग्यता से क्या मिलेगा केवल प्रवचन।
जीवन में शुद्ध आचरण बहुत जरूरी है शरीर को बेडौल और बीमारियों से बचाने के लिए, व्रत जरूरी है शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, ज्यादा नशा करना गलत है उससे दिमाग स्थिर नहीं हो पाता, किसी को बेवजह मारना पीटना गलत है दूसरे की सम्मान से अधिकार को छीनने का लिए,