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22 Feb 2024 · 1 min read

मैं इक निर्झरिणी नीर भरी

मैं इक निर्झरिणी नीर भरी
अश्रुओं से यूँ अक्षि सँवरी
बन संगीत इक भीतर सजा
कभी विरह तो हॄदय बसा।

यूँ ही नभ बरबस निहारती
पिपासा इक भीतर कराहती
हो घनघोर पयोध बरसते
शुष्क से नयन आकुल तरसते।

स्वर्णिम रम्य आच्छादित कोना
धरा तो इक सुंदर बिछौना
अमृत सा नीर झर झर बहा
लेकर संग फिर अनुराग विदा।

क्षितिज तब इक सुदूर दिखता
उदधि कंज सा बनके खिलता
स्वप्निल नयना आकुल बने
थमते अधर ये बिन कुछ कहे।

विभावरी तो क्षणिक ठहरी
जिजीविषा इक भीतर पली
रोम रोम यूँ अविच्छिन्न बना
तमस सदन में प्रदीप ढला।

हिय नगर भावनाओं से भरा
कोई न कभी अपना बना
शुष्क सी बन अमृत को तरसी
कल जीवित थी आज मिट चली।

✍️”कविता चौहान”
स्वरचितएवं मौलिक

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