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17 Feb 2024 · 1 min read

सुस्ता लीजिये – दीपक नीलपदम्

सुस्ता लीजिये थोड़ा,

थक गए हैं अगर,

रुक लीजिये थोड़ा,

रुक गए हैं अगर।

रुकना है अभिशाप

ये जान लें मगर।

इस हद तक दौड़

मची हुई है आज,

लगती है ज़िंदगी

काँटों भरी डगर ।

वो शुकून जिसको कहते हैं,

किसको कहाँ मिला?

निराशा हराकर आशा का

दीपक कहाँ जला?

ख्वाहिशों के कितने भी

पूरे हुए मुक़ाम,

अगली को उठ खड़ा हुआ

मन मैं नया मलाल।

हाँथों में सब मौजूद है

पर हाँथों को ही मला।

सुस्ता लीजिये थोड़ा,

थक गए हैं अगर,

रुकना है अभिशाप

ये जान लें मगर।

इस हद तक दौड़

मची हुई है आज,

लगती है ज़िंदगी

काँटों भरी डगर ।

वो शुकून जिसको कहते हैं,

किसको कहाँ मिला ?

निराशा हराकर आशा का

दीपक कहाँ जला ?

ख्वाहिशों के कितने भी

पूरे हुए मुक़ाम,

अगली को उठ खड़ा हुआ

मन मैं नया मलाल।

हाँथों में सब मौजूद है

पर हाँथों को ही मला ।

वो शुकून जिसे कहते हैं,

किसको कहाँ मिला ?

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

1 Like · 191 Views
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