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6 Feb 2024 · 1 min read

फ़र्ज़ …

फ़र्ज़ पूछो उस दिये से,

जो लड़ा था आँधियों से,

एक मोती बन गयी और कीच में मसली गयी

उस बूँद से भी…

जल रही, अनवरत काया और हृद

उस सूर्य से पूछो

फ़र्ज़ कैसे निभाया

चाँद से-

घटता और बढ़ता रहा है

जिस्म जिसका हर तिथि पर …

घूमती धरती सदा,

क्या सह्य है उसको

मगर यह फ़र्ज़ है,

कैसे निभाया? ? ?

वायु भी जो बह रही

ले रेत आँचल में,

गंध-दुर्गन्ध ढोती,

फट रहे परमाणु बम से

दहलती और बर्फ़ पर ये कंपकंपाती

ले चिरायंध सड़ रहे शवदाह-गृह में कसमसाती,

धूल से पूछो कुचलने की व्यथा-

कैसी रही थी युग-युगों तक…

पाँव सैनिक के,

चलें जो रेत में तपते-दहकते,

और गलते ग्लेशियर पर…

हाथ की असि काटती है शीश और तन,

भेद के बिन

मित्र, प्रेमी, अरि, प्रिया या इष्ट की बलि…

हे मनुज! तू गिन रहा

माता-पिता, सन्तान-सेवा,

द्रव्य-संचय, ब्याह-शादी और शिक्षा-व्यय-

तुझे बोझिल लगें,

तू नौकरी से पालता परिवार

भारी बहुत गिनता फ़र्ज़ हर-पल…

काश! तू यह जान लेता

फ़र्ज़, बहुतेरे कठिन-दुष्कर और दुःसाध्य

जीवन और मरण की

परिधियों को लाँघ, शाश्वत चल रहे हैं…

इस प्रकृति को साधते

कीड़े-मकोड़े, सूक्ष्म जल-चर

और नभचर जीव के हित मिट रहे हैं…

फ़र्ज़ हैं कितने, कहाँ तक मैं गिनाऊँ?

यह प्रकृति, आकाश-गंगा

सौरमंडल

और स्वयं प्रभु, स्वयंभू

कर्तव्य से बँध कर चलें कल्पान्तरों तक…

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