मुनिया की मां
बरसों से जाने कितनी बरसातें और,
जाने कितने तूफ़ान झेलती,
मुनिया की मां के घर की दीवारें जब ढहने लग गयीं तब,
उसने देखा उसके घर की नींव जहाँ थी,
कीचड़ और दलदल था केवल,
सूखी, पुख्ता ज़मीं कहां थी,
बरसातों का पानी क्रमशः नींवों में भी घुस आया था,
मुनिया के बप्पा से उसने, उसी पुराने, धीमे स्वर में कहा -सुनो -कुछ करो, हमारे,
घर को यूं मत गिर जाने दो,
प्रतिउत्तर में वही पुराना, वही कड़कता स्वर था आया,
और मुनिया की मां ने कुछ एक बांसों की बैसाखी दे कर,
घर की ढहती दीवारों को, गिरने से तो बचा लिया है,
लेकिन इसी सोच में उसके दिन कटते, रातें कटती हैं,
हिलती नींवों को बांसों की बैसाखी कब तक थामेगी,
मुनिया का गौना होने तक, ये घर गिरने से बच जाता,
मन में फ़िर ख्याल कुछ आता, और बिनती में सर झुक जाता,
हे राम जी, हे देवी मां, मेरी मुनिया के घर की दीवारें उजली, चिकनी हों,
घर की नीवें पुख्ता हों और सर पर एक बड़ी सी छत हो।