…. मन की पीर….
नारी के मन की व्यथा,
यहां न जाने कोई।
सबकी वह सुनती रहे,
उसकी सुने न कोई।
हद तो तब हो जाती है,
जब कहने वाले अपने हों।
क्योंकि गैरों से लड़ना मुमकिन है
अपनो से नही लड़ सकते हैं।
बात अगर मेरी होती,
मैं कभी किसी से न कहती ।
सबकी बातें सबके ताने ,
मैं हंसकर के सह जाती ।
जब बात मेरे बच्चों की हो ,
तो कैसे मैं चुप रह जाऊं।
यदि भेद मेरे बच्चों में हो,
यह सब कैसे मैं सह जाऊं ।
पर रिश्तों के आगे ,
न जाने क्यों झुक जाती हू।
कहने को बहुत कुछ होता है ,
कुछ सोच के चुप रह जाती हूं।
पर सबसे मुश्किल होता है,
हंस कर सब कुछ सह जाना।
उससे ज्यादा मुश्किल होता ,
अपने आप से हार जाना।
रूबी चेतन शुक्ला
अलीगंज
लखनऊ