Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
1 Jan 2022 · 12 min read

अदम्य जिजीविषा के धनी श्री राम लाल अरोड़ा जी

भारत विभाजन की त्रासदी
■■■■■■■■■■■■■■■
अदम्य जिजीविषा के धनी श्री राम लाल अरोड़ा जी
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
श्री राम लाल अरोड़ा जी ने 104 वर्ष की आयु प्राप्त की । 28 अगस्त 2008 को आपकी मृत्यु हुई । पूरा जीवन सादगी और सात्विक विचारों के अनुसरण के साथ बीता। अंतिम दिनों में 2 अगस्त से आपने निराहार रहकर जीवन की आराधना की और तत्पश्चात आपका शरीर ईश्वर में विलीन हो गया । अपने आत्मबल पर तथा अपनी अदम्य साहस और उत्साहवादिता के कारण आपने जीवन में सब कुछ खोने के बाद एक बार फिर से उच्च स्थान प्राप्त किया । आपका मृदु स्वभाव था । सबसे आत्मीयता थी । जब आपकी मृत्यु हुई तो भरा-पूरा परिवार आपके साथ था । सब सुखी और संपन्न थे। आप का निवास रामपुर में लंगरखाने की गली में सुंदर लाल इंटर कॉलेज के निकट था । आपकी दुकान और कारोबार सफलता की ऊँचाइयों को छू रहा था। इन सब के पीछे आपका कठोर परिश्रम तथा विपरीत परिस्थितियों के आगे भी हार न मानने की आपकी अदम्य जिजीविषा थी।
रामपुर में नियति आपको ले आई अन्यथा किसने सोचा था कि बन्नू निवासी श्री गंगाराम अरोड़ा जी के एकमात्र पुत्र श्री रामलाल अरोड़ा जी को पाकिस्तान के अपने पुश्तैनी तथा अनेक पीढ़ियों से निवास करते आ रहे शहर को छोड़कर सैकड़ों मील दूर जाकर शरणार्थियों के रूप में बसना पड़ेगा । बन्नू में आपका पुश्तैनी घर था । खेती का भरा-पूरा व्यवसाय था। हर तरफ खुशियाँ छाई हुई थीं। मगर भारत के बँटवारे ने सारा कुछ सुख-चैन छीन लिया । विभाजन एक ऐसी त्रासदी बनकर आया ,जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । बन्नू शहर की एक लाख से कुछ कम आबादी थी और उसमें हिंदुओं की संख्या मुश्किल से दो-चार हजार रही होगी । लेकिन कहीं कोई सांप्रदायिक मतभेद अथवा क्लेश बँटवारे से पहले दिखाई नहीं देते थे । हिंदू और मुसलमान आपस में प्यार से रहते थे । भाईचारा था। दुआ-सलाम और नमस्ते होती थी। साथ उठना-बैठना था । मोहल्ले-पड़ोस में सुख-दुख में भागीदारी हुआ करती थी । धर्म की दीवार कभी बीच में खड़ी नहीं हुई । बँटवारे की माँग यद्यपि बँटवारे से काफी पहले से चल रही थी । सुगबुगाहट होने लगी थी । मगर फिर भी सब को विश्वास था कि बँटवारा नहीं होगा ।
रामलाल जी को स्मरण था कि एक बार जवाहरलाल नेहरू की सभा हुई थी । फिर उसके बाद उनसे भेंट करने का भी अवसर मिला था । भेंट अर्थात पास-पास खड़े होकर बातचीत करने का अवसर । किसी ने प्रश्न किया था “क्या पाकिस्तान बनेगा ? क्या भारत का बँटवारा हो जाएगा ?”
जवाहरलाल नेहरू ने कुछ इस तरह का उत्तर दिया था कि जिसका अर्थ यह निकल रहा था कि यह बात गाँधीजी बताएँगे । गाँधी जी से भी बन्नू के लोगों की बातचीत हुई थी । गाँधी जी का कहना था- “बँटवारा मेरी लाश पर होगा ”
यह देश की जनता का दृढ़ विश्वास था, जो भारत के इन दो महान नेताओं के वक्तव्य से प्रकट हो रहा था । न तो नेहरू जी बँटवारा चाहते थे और न गाँधीजी किसी भी कीमत पर देश को बाँटने देना चाहते थे। लेकिन इन सब बातों से हटकर समय अपनी गति से बढ़ता चला जा रहा था ।
बन्नू में राष्ट्रीयत्व की भावनाओं को जगाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ लगती थीं। इनमें सौ-डेढ़ सौ लोग शामिल होते थे। एक शाखा का नाम चावला शाखा था दूसरी शाखा का नाम बजरंग शाखा था । इसी तरह अन्य शाखाएँ भी लगा करती थीं। रामलाल अरोड़ा जी इन शाखाओं में रुचि पूर्वक हिस्सा लेते थे और देशभक्ति का पाठ पढ़ते थे । क्या कांग्रेस और क्या संघ ! दोनों का ही अर्थ बन्नू के संदर्भ में राष्ट्रीयत्व की भावनाओं को जगाना था । बन्नू की एक अपनी चाहरदीवारी थी। नगर में प्रवेश के लिए दो-दो द्वार थे। अफगानिस्तान की सीमाएँ दो – चार किलोमीटर के पास स्थित थीं। एक प्रकार से यह क्षेत्र सीमांत गाँधी खान अब्दुल गफ्फार खाँ की देशभक्ति से ओतप्रोत था । स्वयं सीमांत गाँधी बँटवारे को किसी हालत में स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे ।
इतना सब कुछ होते हुए भी 15 अगस्त 1947 को रक्त की बूँदों से भारत के विभाजन की बर्बरता पूर्ण कथा लिख दी गई। 14 अगस्त 1947 तक बन्नू कुछ और था ,15 अगस्त 1947 के बाद बन्नू शहर पाकिस्तान बन चुका था । रामलाल अरोड़ा जी ने उसी समय परिस्थितियों को भाँप लिया था । उनके चचेरे चाचा जी अपने पिताजी की अस्थियों के विसर्जन के लिए बन्नू से हरिद्वार गए हुए थे। 15 अगस्त 1947 को चाचा जी हरिद्वार में ही थे। बन्नू के हालात उन्हें हरिद्वार में पता चल चुके थे। परिणाम यह निकला कि वह हरिद्वार से फिर बन्नू वापस नहीं आए। लंबे समय बाद कुरुक्षेत्र में परिवारजनों के साथ उनका मिलना हुआ ।
बन्नू की परिस्थितियाँ वहाँ पर हिंदुओं के रहने योग्य नहीं रह गई थीं। गली-मोहल्लों में असामाजिक तत्व भारत विरोधी नारे लगाते हुए जब-तब निकल पड़ते थे और घरों के अंदर दरवाजे की कुंडी लगाकर बैठे हुए हिंदू परमेश्वर से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना करते रहते थे । उनकी सुरक्षा के केवल दो ही उपाय थे । या तो परमेश्वर की प्रार्थना या फिर उनके हाथ में उनकी पुश्तैनी बंदूक, जिसे उन्होंने न जाने कितनी पीढ़ियों से चलाने का प्रशिक्षण लिया हुआ था। आतताइयों को भी यह पता था कि इन लोगों के पास बंदूके हैं तथा आसानी से इन पर हाथ नहीं डाला जा सकता । अतः घरों में घुसने की हिम्मत किसी उपद्रवी की नहीं होती थी । लेकिन फिर भी एक वातावरण पूरी तरह से असुरक्षा का बन चुका था। किसी की जान-माल और इज्जत अब सुरक्षित नहीं रह गई थी । पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही बन्नू पाकिस्तान में शामिल हो चुका था । अतः आतताई स्पष्ट संदेश देना चाहते थे कि तुम यहाँ से चले जाओ ,पाकिस्तान छोड़ दो ,अब भारत ही तुम्हें आश्रय दे सकता है ।
मगर समस्या यह भी थी कि घर छोड़कर कैसे भागा जाए ? सड़कों पर मृत्यु अपना ग्रास बनाने के लिए अट्टहास कर रही थी। उसकी वीभत्स शिकारी मानसिकता भारत-भक्तों को आतंकित करने के लिए पर्याप्त थी। बंदूकें घरों के अंदर सुरक्षा तो कर सकती थीं लेकिन बाहर सड़कों पर जो भीड़ चल रही थी ,उनसे वह मुकाबला कैसे कर पातीं?
बन्नू से सुरक्षित निकल कर भारत में शरण लेना एक टेढ़ी खीर थी। कई महीने इसी उधेड़बुन में लग गये। बीच में एक बार भारत-भक्तों का यह विचार भी बना कि अफगानिस्तान में जाकर बस जाया जाए। अफगानिस्तान की सीमा पास में ही थी । वहाँ जाना भी सरल था । वहाँ पर रहने में कोई दिक्कत भी नहीं आती ,लेकिन फिर सब का विचार बना कि कहीं “आसमान से गिरे और खजूर में अटके” वाली बात न हो जाए ! अफगानिस्तान की संकीर्ण और कट्टरवादी मानसिकता उनके भीतर एक भय पैदा कर रही थी । उन्हें लगता था कि अफगानिस्तान उनके संस्कारों के अनुरूप वातावरण प्रदान नहीं कर पाएगा । दूरदर्शिता से काम लेते हुए सबने बन्नू से अफगानिस्तान की तरफ भागने की योजना पर अमल नहीं किया । बन्नू में ही अनुकूल परिस्थितियों का इंतजार करते रहे । परिस्थितियाँ बहुत प्रतिकूल थीं। सब कुछ दाँव पर लगा हुआ था। कुछ भी सुरक्षित नहीं था । एक-एक दिन करके समय कट रहा था और एक दिन एक महीने की तरह लंबा जान पड़ता था ।
आखिर 10 जनवरी 1948 को एक ट्रेन भारत जाने के लिए उपलब्ध हुई । मगर यह भी रामलाल अरोड़ा जी की किस्मत में नहीं थी । ट्रेन में जितने आदमी अंदर डिब्बे में बैठे थे ,उतने ही ट्रेन की छत पर चढ़े हुए थे । जितने लोगों को ट्रेन में जगह मिल सकती थी ,वह किसी तरह ठूसमठास करके चढ़ गए । रामलाल जी रह गए । ट्रेन आगे बढ़ी और उसकी मंजिल भारत थी । मगर अटारी तक पहुंचने से पहले ही ट्रेन को दंगाइयों ने रोक लिया। यह कबीलाई मानसिकता थी । यह पाशविकता थी ,जिसमें मनुष्यता का कोई भाव नजर नहीं आ रहा था । न जान सुरक्षित थी ,न माल सुरक्षित था और न ही स्त्रियों की इज्जत और आबरू सुरक्षित थी । 48 घंटे तक ट्रेन दंगाइयों ने रोके रखी और वह पशुता का नंगा नाच उस जंगल में खड़ी हुई ट्रेन के साथ हुआ ,जिसके बारे में उस समय भी सुन-सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। आँखों से आँसू आने लगते थे और जब तक रामलाल जी जीवित रहे ,इस घटना को आँसुओं के साथ ही अपने बच्चों को सुनाते रहे । किस्मत ने कितना बड़ा दर्द उन लोगों के भाग्य में लिख दिया था ,जो भारत भक्त थे और जिन्हें अपनी ही भूमि से भागकर विभाजित भारत में शरण लेने के लिए पहुंचना भी मुश्किल हो रहा था । रामलाल जी ने उस समय सुना था कि भारत से कोई महिला पुलिस अधिकारी भारी फोर्स के साथ ट्रेन के पास तक पहुंची थीं। ट्रेन का इंजन अलग करके दूर ले जाकर खड़ा कर दिया गया था । उन्होंने स्थिति पर काबू पाया। इंजन को डिब्बों के साथ जुड़वाया। तब जाकर ट्रेन सुरक्षित रीति से आगे बढ़ पाई । तो भी जो जान ,माल और इज्जत का नुकसान हो चुका था ,उसकी भरपाई तो भला कैसे हो पाती ? इधर ट्रेन में सफर करने में यह भयावह दुर्दशा हो रही थी और उधर बन्नू में घर के अंदर डर कर रहना पड़ रहा था तथा सड़क पर निकलने की तो सोची भी नहीं जा सकती थी । राम-राम करके एक-एक दिन कटा ,तब जाकर मार्च का महीना आया।
रामलाल अरोड़ा जी को ट्रेन मार्च 1948 में उपलब्ध हुई । सौभाग्य से इस बार किस्मत ने उनके साथ दगा नहीं किया ।उन्हें ट्रेन में जगह मिल गई । एक हजार से ज्यादा भारत-भक्त उस ट्रेन में बैठे थे और उस पाकिस्तान रूपी जेलखाने से छूट कर भागने का प्रयत्न कर रहे थे ,जिसमें सिवाय प्रताड़ना और अपमानजनक मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा था । ट्रेन चलकर सीधे कुरुक्षेत्र में आकर रुकी। वहाँ पर शरणार्थियों का एक बड़ा कैंप लगा हुआ था । सिर छुपाने के लिए टेंट में जगह मिल गई । रामलाल जी परिवार सहित वहाँ रहने लगे । खाने को दो वक्त का भोजन मिल जाता था । बस यही विभाजन की एकमात्र योजना थी ,जो उनके सामने परोसी जाती थी । कभी-कभी रामलाल जी सोचते थे कि इतना बड़ा विभाजन तो कर दिया गया लेकिन अब हमारा क्या होगा -इसके बारे में किसी ने नहीं सोचा ? कहां रहेंगे ? क्या खाएंगे ? कैसे पढ़ेंगे ? रोजगार कहाँ होगा ? हजारों सवाल थे और उत्तर नदारत था । कुरुक्षेत्र के शरणार्थी शिविर में जान तो बच गई थी लेकिन भविष्य दूर-दूर तक अंधकारमय दिख रहा था ।
रामलाल जी के पास जब वह बन्नू से चले ,तो दो चीजें थीं। एक उनकी पुश्तैनी बंदूक , जो उन्होंने किसी प्रकार से संदूक में छुपा कर रखी थी और अपने साथ ले आए। दूसरी भगवद् गीता जो उनके पूर्वजों ने अपने हाथ से लिखी थी और जिसका पाठ उनके पिताजी नियमित रूप से करते थे । यह भगवद् गीता विरासत में रामलाल जी के पास थी । जीवन की सबसे अनमोल पूँजी मानकर हस्तलिखित यह गीता वह सर्वाधिक सुरक्षित रीति से पाकिस्तान से भारत ले आए । जीवन भर इस गीता के श्लोकों को पढ़ते रहे और इससे उन्हें कर्मठता ,उत्साह और कभी भी हिम्मत न हारने की प्रेरणा मिलती रही। एक पिस्तौल थी, जिसे रामलाल जी की धर्मपत्नी ने अपने पास छुपा कर रखी थी लेकिन वह रास्ते में पकड़ी गई । बंदूक तो इसलिए बच गई क्योंकि रामलाल जी ने बड़ी चतुराई से उसे छुपाया हुआ था ।
सबसे बड़ा सवाल लौट-फिरकर रोजी-रोटी और आजीविका का रह जाता है। बन्नू के अपने विशाल खेत उन्हें कुरुक्षेत्र के शिविरों में बैठकर भी बहुत याद आते थे । लगीबँधी आमदनी थी । कर्मठ जीवन था । परिश्रम से भरी हुई दिनचर्या थी । खेती की आमदनी से केवल रामलाल जी का ही नहीं बल्कि ज्यादातर हिंदुओं का भरण पोषण होता था । अब यहां कुरुक्षेत्र के शरणार्थी शिविर में खाली हाथ थे।
एक दिन नियति ने रामलाल जी को रामपुर रियासत में बसने का निमंत्रण दे दिया । रामपुर के तत्कालीन शासक नवाब रजा अली खाँ शरणार्थियों को रामपुर रियासत के भीतर बसाने के लिए तत्पर थे। उनकी सहानुभूति इन हिंदू शरणार्थियों के प्रति थी । नवाब रामपुर ने अपने रियासतकालीन अनेक भवनों के द्वार इन शरणार्थियों को बसाने के लिए खोल दिए थे। वैसे भी कुरुक्षेत्र का शरणार्थी-शिविर एक अत्यंत अस्थाई व्यवस्था थी । टेंट में भला कोई कितने दिन तक रह सकता था ? पक्के भवनों की आवश्यकता महसूस की जा रही थी ,किंतु सुनियोजित कार्यक्रम के अभाव में भारत-विभाजन की इस अनिवार्य परिणति से जूझना भला कैसे संभव हो पाता ? बड़ी आबादी पाकिस्तान से असुरक्षित होकर भारत की ओर आएगी ,इस बारे में योजना बनाए बगैर ही आनन-फानन में भारत विभाजन को कार्य रूप दे देने से समस्याएं और भी विकराल हो गई थीं।
खैर रामलाल जी कुरुक्षेत्र से रामपुर रियासत में आए । उनके साथ बन्नू के उनके भारी संख्या में परिवारजन ,रिश्तेदार तथा अन्य निवासी भी थे। किले की चाहरदीवारी के भीतर हामिद-गेट से प्रवेश करते ही बाएं हाथ को जो पार्क था तथा जिसकी पृष्ठभूमि में रजा लाइब्रेरी दिखाई पड़ती है ,वहां पर कुछ लोगों को कैंप में टेंट के भीतर रहना पड़ा । भोजन आदि की व्यवस्था हो जाती थी । शरणार्थियो की संख्या बहुत ज्यादा थी। सब लोगों को भवन उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे । यद्यपि कुछ को फर्राशखाना ,रामपुर के भवन में रहने की सुविधा मिल गई थी । अन्य स्थानों पर भी शरणार्थी आश्रय लिए हुए थे । यह एक नई जिंदगी की शुरुआत थी । जैसे कोई बालक जन्म लेते समय खाली हाथ संसार में आता है ,ठीक वही स्थिति हजारों की संख्या में रामपुर रियासत में आश्रय लेने वाले शरणार्थियों की थी । इन अभागों के पास न हाथ में पैसा था, न रोजगार था ।
बड़ी संख्या में शरणार्थियों ने डबलरोटी बेचने का काम किया । साढ़े चार आने में डबलरोटी मिलती थी और छह आने में बिक जाती थी । इसी तरह चाय बेचने का काम बहुतों ने अपने हाथ में लिया। यह सब परिस्थितियां बन्नू में खेती के व्यवसाय की तुलना में तो बहुत निम्न स्तर की ही रहीं लेकिन मजबूरी क्या कुछ नहीं कराती ? परिवार का पालन -पोषण मेहनत के साथ यही कार्य करके रामलाल जी और अन्य शरणार्थी बंधुओं ने किया था।
कठोर परिश्रम, परिस्थितियों से हार न मानना, मितव्ययी स्वभाव ,बातचीत में मिठास तथा सबको अपना प्रिय बना लेना रामलाल जी का गुण था । इन्हीं सद्गुणों के कारण उन्हें समाज में आदर मिला और उन्होंने एक प्रतिष्ठित स्थान अपने लिए और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित कर लिया। आपका जीवन इस बात का उदाहरण है कि व्यक्ति को कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। जब मृत्यु सम्मुख हो ,तो भी जीवन की आशा बनी रहनी चाहिए । गरीबी और अमीरी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं -इस विचार को आपने चरितार्थ करके दिखा दिया । आप की जीवनगाथा एक ओर आँसुओं से भरी हुई है ,भारत-भक्तों के साथ होने वाले अत्याचारों से रक्तरंजित है ,वहीं दूसरी ओर भारत की महानता ,उसकी संस्कृति ,धर्म और परंपराओं के प्रति आपकी अटूट निष्ठा का भी परिचायक है।
आपने भगवद् गीता को अपनी सबसे बड़ी पूँजी मानकर उसे विस्मृत नहीं होने दिया । यह आपके साथ पाकिस्तान से रामपुर आई और रामपुर रियासत के इतिहास का एक अटूट हिस्सा बन गई । आप हिंदी ,उर्दू ,अरबी, फारसी गुरुमुखी ,पश्तो तथा अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे । इन भाषाओं को लिखने तथा पढ़ने में आपकी पूर्ण दक्षता थी । विविध भाषाओं के जानकार होने के कारण समाज में लोग आपके पास विभिन्न पत्राजातों को पढ़वाने के लिए आते थे तथा आप प्रसन्नता पूर्वक लोगों का इस कार्य में सहयोग करते थे । आपकी चिंतनशील प्रवृत्ति थी । नियमित रूप से कुछ न कुछ उर्दू में लिखते रहना आपकी प्रवृत्ति बन गई थी । उर्दू में पत्र-लेखन आपके लिए बहुत सहज था । ऋषिकेश में आपके जो चचेरे भाई रहते थे, उनसे चिट्ठियों का आदान-प्रदान उर्दू भाषा में ही होता था । इतनी अच्छी उर्दू संभवतः रामपुर में भी हर व्यक्ति के व्यवहार में नहीं आती होगी ।
बन्नू (अब पाकिस्तान में ) शिक्षा का एक अच्छा केंद्र था । पढ़ाई का स्तर अच्छा था । स्कूलों में उस जमाने में इस प्रकार से शिक्षा दी जाती थी कि वह जीवन में उपयोगी हो सके । विभिन्न उपयोगी भाषाओं का ज्ञान शिक्षा की इसी पद्धति का एक अंग था । चिंतनशील आध्यात्मिकता से ओतप्रोत और सहृदय व्यक्तित्व होने के कारण समाज में आपको सब का आदर मिलता था तथा आप भी सबसे प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे। जीवन में सफलता की ऊंचाइयों को छूने के बाद भी आपने सरलता और सहजता का जन्मजात गुण अंतिम दम तक नहीं त्यागा । आपने अपने बच्चों को सुशिक्षित बनाया । उच्च संस्कार दिए । इसी का परिणाम यह हुआ कि आपके तीनों पुत्र जीवन में भली प्रकार से कार्यरत हैं । सबसे बड़े पुत्र को आपने योग्य चिकित्सक बनाया । बाकी दोनों पुत्र व्यवसाय की दृष्टि से अग्रणी हैं। श्री महेंद्र कुमार अरोड़ा जी आपके ही साथ रहते रहे तथा उनका भारत बुटीक नाम से उच्च कोटि का व्यवसायिक प्रतिष्ठान बाजार सर्राफा (मिस्टन गंज) में स्थित है। श्री रामलाल अरोड़ा जी की साहस भरी जीवन गाथा को शत शत प्रणाम ।
(यह लेख स्वर्गीय श्री राम लाल अरोड़ा जी के सुपुत्र श्री महेंद्र कुमार अरोड़ा जी से दिसंबर 2021 में दो चरणों में बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है । इसके लिए श्री महेंद्र अरोड़ा जी को धन्यवाद देना लेखक अपना कर्तव्य समझता है ।)
■■■■■■■■■■■■■■■■■■
लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

750 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Ravi Prakash
View all

You may also like these posts

करें उम्मीद क्या तुमसे
करें उम्मीद क्या तुमसे
gurudeenverma198
रमेशराज की पिता विषयक मुक्तछंद कविताएँ
रमेशराज की पिता विषयक मुक्तछंद कविताएँ
कवि रमेशराज
"PERSONAL VISION”
DrLakshman Jha Parimal
#विशेष_दोहा-
#विशेष_दोहा-
*प्रणय प्रभात*
दुनिया वालो आँखें खोलो, ये अभिनव भारत है।
दुनिया वालो आँखें खोलो, ये अभिनव भारत है।
श्रीकृष्ण शुक्ल
पुस्तक
पुस्तक
Rajesh Kumar Kaurav
कई मौसम गुज़र गये तेरे इंतज़ार में।
कई मौसम गुज़र गये तेरे इंतज़ार में।
Phool gufran
रे मन! यह संसार बेगाना
रे मन! यह संसार बेगाना
अंजनी कुमार शर्मा 'अंकित'
पाक-चाहत
पाक-चाहत
Shyam Sundar Subramanian
फूल चेहरों की ...
फूल चेहरों की ...
Nazir Nazar
रिश्ता मेरा नींद से, इसीलिए है खास
रिश्ता मेरा नींद से, इसीलिए है खास
RAMESH SHARMA
जय श्री राम
जय श्री राम
Dr Archana Gupta
पढ़े लिखें परिंदे कैद हैं, माचिस से मकान में।
पढ़े लिखें परिंदे कैद हैं, माचिस से मकान में।
पूर्वार्थ
हिंग्लिश में कविता (हिंदी)
हिंग्लिश में कविता (हिंदी)
पाण्डेय चिदानन्द "चिद्रूप"
बचा ले मुझे🙏🙏
बचा ले मुझे🙏🙏
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
इस कदर मजबूर था वह आदमी...
इस कदर मजबूर था वह आदमी...
Sunil Suman
धनुष वर्ण पिरामिड
धनुष वर्ण पिरामिड
Rambali Mishra
"दयानत" ग़ज़ल
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
कुण्डलिया छंद
कुण्डलिया छंद
sushil sharma
एक मशाल तो जलाओ यारों
एक मशाल तो जलाओ यारों
नेताम आर सी
जिन्दगी से शिकायत न रही
जिन्दगी से शिकायत न रही
Anamika Singh
दोहा
दोहा
गुमनाम 'बाबा'
मतलब का सब नेह है
मतलब का सब नेह है
विनोद सिल्ला
नमन साथियों 🙏🌹
नमन साथियों 🙏🌹
Neelofar Khan
!! शुभकामनाएं !!
!! शुभकामनाएं !!
Jeewan Singh 'जीवनसवारो'
" शब्दों से छूना "
Dr. Kishan tandon kranti
3660.💐 *पूर्णिका* 💐
3660.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
कोविड और आपकी नाक -
कोविड और आपकी नाक -
Dr MusafiR BaithA
सेवन स्टेजस..❤️❤️
सेवन स्टेजस..❤️❤️
शिवम "सहज"
“ज़ायज़ नहीं लगता”
“ज़ायज़ नहीं लगता”
ओसमणी साहू 'ओश'
Loading...