Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
22 Dec 2021 · 8 min read

तुकान्त विधान

तुकान्त विधान

छन्द और छन्दबद्ध कविता के शिल्प में तुकान्त का विशेष महत्व है, इसलिए तुकान्त को समझना आवश्यक है। काव्य-पंक्तियों के अंतिम समान भाग को तुकान्त कहते हैं और कविता के इस गुण को तुकान्तता कहते हैं।

तुकान्त का चराचर सिद्धान्त
तुकान्तता को समझने के लिए एक तुकान्त रचना का उदाहरण लेकर आगे बढ़ें तो समझना बहुत सरल हो जायेगा। उदाहरण के रूप में हम इस मुक्तक पर विचार करते हैं-

रोटियाँ चाहिए कुछ घरों के लिए,
रोज़ियाँ चाहिए कुछ करों के लिए,
काम हैं और भी ज़िन्दगी में बहुत –
मत बहाओ रुधिर पत्थरों के लिए।
– ओम नीरव
इस मुक्तक के पहले, दूसरे और चौथे पद तुकान्त हैं। इन पदों के अंतिम भाग इस प्रकार हैं-
घरों के लिए = घ् + अरों के लिए
करों के लिए = क् + अरों के लिए
थरों के लिए = थ् + अरों के लिए
इन पदों में बाद वाला जो भाग सभी पदों में एक समान रहता है उसे ‘अचर’ कहते हैं और पहले वाला जो भाग प्रत्येक पद में बदलता रहता है उसे ‘चर’ कहते हैं। इसी अचर को तुकान्त कहते हैं। चर सदैव व्यंजन होता है जबकि अचर का प्रारम्भ सदैव स्वर से होता है। चर सभी पदों में भिन्न होता है जबकि अचर सभी पदों में समान रहता है।
उक्त उदाहरण में –
चर = घ्, क्, थ्
अचर = अरों के लिए
अचर के प्रारम्भ में आने वाले शब्दांश (जैसे ‘अरों’) को समान्त तथा उसके बाद आने वाले शब्द या शब्द समूह (जैसे ‘के लिए’) को पदान्त कहते हैं। समान्त को धारण करने वाले पूर्ण शब्दों को समान्तक शब्द या केवल समान्तक कहते हैं जैसे इस उदाहरण में समान्तक शब्द हैं– घरों, करों, पत्थरों। तुकान्त, समान्त और पदान्त में संबन्ध निम्न प्रकार है-
तुकान्त = समान्त + पदान्त
अरों के लिए = अरों + के लिए
उपर्युक्त व्याख्या से प्राप्त निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं-
(1) अचर या तुकान्त- काव्य पंक्तियों के ‘अंतिम सम भाग’ को अचर या तुकान्त कहते हैं, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में ‘अरों के लिए’।
(2) चर- काव्य पंक्तियों के अंतिम सम भाग अर्थात अचर से पहले आने वाले व्यंजनों को चर कहते हैं, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में ‘घ्, क्, थ्’।
(3) पदान्त- अंतिम सम भाग के अंत में आने वाले पूरे शब्द या शब्द समूह को पदान्त कहते हैं, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में ‘के लिए’। पदान्त को उर्दू में रदीफ़ कहते हैं।
(4) समान्त- अंतिम सम भाग के प्रारम्भ में आने वाले शब्दांश को समान्त कहते हैं, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में ‘अरों’। समान्त को उर्दू में काफिया कहते हैं।
(5) अपदान्त- जब तुकान्त में पदान्त नहीं होता है तो उस तुकान्त को अपदान्त कहते हैं, जैसे इठलाती, बल खाती, लहराती, वह आती- इन पंक्तियों में समान्त ‘आती’ है जबकि पदान्त नहीं है। यह तुकान्त अपदान्त है।

तुकान्त की कोटियाँ
तुकान्त की उत्तमता को समझने के लिए हम इसे निम्नलिखित कोटियों में विभाजित करते हैं-

(1) वर्जनीय तुकान्त–
इस कोटि में ऐसे तुकान्त आते हैं जो वस्तुतः वर्जित हैं। उदाहरणार्थ–
(क) जब समान्त का प्रारम्भ स्वर से न होकर व्यंजन से होता है जैसे – अवरोध, प्रतिरोध, अनुरोध के तुकान्त में समान्त ‘रोध’ व्यंजन से प्रारम्भ हुआ है। ऐसा तुकान्त सर्वथा त्याज्य है।
(ख) जब समान्त अकार ‘अ’ होता है जैसे सुगीत, अधीर, दधीच के तुकान्त में समान्त ‘अ’ है। ऐसा तुकान्त सर्वथा त्याज्य है।
(ग) जब समान्त में अनुनासिक की उपेक्षा की जाती है जैसे ठाँव, गाँव, नाव, काँव के तुकान्त में अनुनासिक की उपेक्षा की गयी है अर्थात ‘नाव’ का प्रयोग करते समय अनुनासिक पर ध्यान नहीं दिया गया है। इसी प्रकार रही, बही, ढही, नहीं अथवा करें, मरें, झरे, डरें के तुकान्त में अनुनासिक की उपेक्षा की गयी है। ऐसे प्रयोग पूर्णतः वर्जनीय हैं।
(घ) जब न और ण को समान माना जाता है जैसे संधान, सम्मान, निर्वाण के तुकान्त में ण को न के समान माना गया है। ऐसे प्रयोग पूर्णतः वर्जनीय हैं।
(च) जब श, ष और स को एक समान माना जाता है जैसे आकाश, सुभाष, प्रयास के तुकान्त में श, ष और स को एक समान माना गया है। ऐसे प्रयोग पूर्णतः वर्जनीय हैं।
(छ) जब ऋ और रकार को समान मान लिया जाता है जैसे अनावृत, प्राकृत, विस्तृत, जाग्रत के तुकान्त में जाग्रत के रकार को शेष तीन शब्दों के ऋ के समान मान लिया गया है। ऐसे प्रयोग पूर्णतः वर्जनीय हैं। अन्य उदाहरण- पात्र, गात्र, मातृ का तुकान्त, चित्र, मित्र, पितृ का तुकान्त आदि।

(2) पचनीय तुकान्त-
इस कोटि में ऐसे तुकान्त आते हैं जो वस्तुतः हिन्दी में अनुकरणीय नहीं हैं किन्तु चलन में आ जाने के कारण उन्हें स्वीकार करना या पचाना पड़ जाता है। उदाहरणार्थ-
(क) जब समान्त ‘केवल स्वर’ होता है जैसे दिखा जाइए, जगा जाइए, सुना जाइए, बता जाइए आदि में तुकान्त ‘आ जाइए’ है। इसमें समान्त केवल स्वर ‘आ’ है। ऐसा तुकान्त हिन्दी में अनुकरणीय नहीं है। वास्तव में समान्त का प्रारम्भ स्वर से होना चाहिए किन्तु समान्त ‘केवल स्वर’ नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि उर्दू में ऐसा तुकान्त अनुकरणीय माना जाता है क्योंकि उर्दू में स्वर की मात्रा के स्थान पर पूरा वर्ण प्रयोग किया जाता है जैसे ‘आ’ की मात्रा के लिए पूरा वर्ण अलिफ प्रयोग होता है।
(ख) जब समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजन की पुनरावृत्ति होती है जैसे – अधिकार चाहिए, व्यवहार चाहिए, प्रतिकार चाहिए, उपचार चाहिए आदि में पदों के अंतिम भाग निम्न प्रकार हैं-
कार चाहिए = क् + आर चाहिए
हार चाहिए = ह् + आर चाहिए
कार चाहिए = क् + आर चाहिए
चार चाहिए = च् + आर चाहिए
स्पष्ट है कि इनमें समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजन क् की पुनरावृत्ति हुई है, इसलिए यह अनुकरणीय नहीं है किन्तु चलन में होने के कारण उस स्थिति में पचनीय है जब पुनरावृत्ति में अर्थ की भिन्नता हो तथा पुनरावृत्ति अधिक बार न हो।
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि पचनीय तुकान्त का प्रयोग विशेष दुरूह परिस्थितियों में भले ही कर लिया जाये किन्तु सामान्यतः समर्थ रचनाकारों को इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(3) अनुकरणीय तुकान्त–
इस कोटि में ऐसे तुकान्त आते हैं जिनमें ‘स्वर से प्रारम्भ समान्त’ और ‘पदान्त’ का योग अर्थात अचर सभी पदों में समान रहता हैं तथा ‘समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजन’ अर्थात चर की पुनरावृत्ति नहीं होती है जैसे –
चहकते देखा = च् + अहकते देखा
महकते देखा = म् + अहकते देखा
बहकते देखा = ब् + अहकते देखा
लहकते देखा = ल् + अहकते देखा
स्पष्ट है कि इनमें समान्त ‘अहकते’ का प्रारम्भ स्वर ‘अ’ से होता है, इस समान्त ‘अहकते’ और पदान्त ‘देखा’ का योग अर्थात अचर ‘अहकते देखा’ सभी पदों में समान रहता है तथा समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजनों अर्थात चरों च्, म्, ब्, ल् में किसी की पुनरावृत्ति नहीं होती है। इसलिए यह तुकान्त अनुकरणीय है।

(4) ललित तुकान्त–
इस कोटि में वे तुकान्त आते हैं जिनमें अनिवार्य समान्त के अतिरिक्त कोई अन्य समानता देखने को मिलती है, जिससे अतिरिक्त सौन्दर्य उत्पन्न होता है। जैसे-
चहचहाने लगे = चहच् + अहाने लगे
महमहाने लगे = महम् + अहाने लगे
लहलहाने लगे = लहल् + अहाने लगे
कहकहाने लगे = कहक् + अहाने लगे
यहाँ पर अनिवार्य तुकान्त ‘अहाने लगे’ के अतिरिक्त चह, मह, लह, कह में अतिरिक्त समानता दिखाई दे रही है और इनकी पुनरावृत्ति भी होती है। इन दोनों बातों से अति विशेष लालित्य उत्पन्न हो गया है। इसलिए यह एक ललित तुकान्त है।
ललित तुकान्त को स्पष्ट करने के लिए तुकान्त के निम्न उदाहरण क्रमशः देखने योग्य हैं, जो सभी पचनीय या अनुकरणीय हैं किन्तु समान्त जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है , वैसे-वैसे सौन्दर्य बढ़ता जाता है –
(क) लहलहाने लगे, बगीचे लगे, अधूरे लगे, प्यासे लगे– इनमें समान्त केवल स्वर ‘ए’ है, जो मात्र पचनीय है।
(ख) लहलहाने लगे, दिखाने लगे, सताने लगे, बसाने लगे– इनमें समान्त ‘आने’ है, जो हिन्दी में अनुकरणीय तो है किन्तु इसमें कोई विशेष कौशल या विशेष सौंदर्य नहीं है क्योंकि समान्त मूल क्रिया (लहलहा, दिखा, सता, बसा आदि) में न होकर उसके विस्तार (आने) में है। उल्लेखनीय है कि उर्दू में ऐसे समान्त को दोषपूर्ण मानते हैं और इसे ‘ईता’ दोष कहते हैं किन्तु हिन्दी में ऐसा समान्त साधारण सौन्दर्य साथ अनुकरणीय कोटि में आता है।
(ग) लहलहाने लगे, बहाने लगे, ढहाने लगे, नहाने लगे– इनमें समान्त ‘अहाने’ है जो अपेक्षाकृत बड़ा है और मूल क्रिया में सम्मिलित है। इसलिए इसमें अपेक्षाकृत अधिक सौन्दर्य है। यह समान्त विशेष सौन्दर्य के साथ अनुकरणीय है।
(घ) चहचहाने लगे, महमहाने लगे, लहलहाने लगे, कहकहाने लगे– इनमें समान्त ‘अहाने’ है जिसके साथ इस तुकान्त में पूर्ववर्णित कुछ अतिरिक्त समनताएं भी है। इसलिए इसमें सर्वाधिक सौन्दर्य है। यह अति विशेष सौन्दर्य के कारण एक ‘ललित तुकान्त’ है।
यहाँ पर हम ललित तुकान्त के कुछ अन्य उदाहरण दे रहे हैं, जिनमें अनिवार्य मुख्य तुकान्त के अतिरिक्त अन्य प्रकार की समानता ध्यान देने योग्य है-
करती रव, बजती नव, वही लव, नीरव (मुख्य तुकान्त– अव, अतिरिक्त- ई)
ढले न ढले, चले न चले, पले न पले, जले न जले (मुख्य तुकान्त– अले, अतिरिक्त– अले न)
भाँय-भाँय, पाँय-पाँय, धाँय-धाँय, चाँय-चाँय (मुख्य तुकान्त– आँय, अतिरिक्त- आँय)
पोथियाँ, रोटियाँ, गोलियाँ, धोतियाँ (मुख्य तुकान्त– इयाँ, अतिरिक्त- ओ)
चलते-चलते, छलते-छलते, मलते-मलते, गलते-गलते ( मुख्य तुकान्त– अलते, अतिरिक्त- अलते)
उमर होली, हुनर होली, मुकर होली, उधर हो ली (मुख्य तुकान्त– अर होली, अतिरिक्त- उ)

तुकान्त का महत्व
(1) तुकान्त से काव्यानन्द बढ़ जाता है।
(2) तुकान्त के कारण रचना विस्मृत नहीं होती है। कोई पंक्ति विस्मृत हो जाये तो तुकान्त के आधार पर याद आ जाती है।
(3) छंदमुक्त रचनाएँ भी तुकान्त होने पर अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं।
(4) तुकान्त की खोज करते-करते रचनाकार के मन में नये-नये भाव, उपमान, प्रतीक, बिम्ब आदि कौंधने लगते हैं जो पहले से मन में होते ही नहीं है।
(5) तुकान्त से रचना की रोचकता, प्रभविष्णुता और सम्मोहकता बढ़ जाती है।

तुकान्त साधना के सूत्र
(1) किसी तुकान्त रचना को रचने से पहले प्रारम्भ में ही समान्तक शब्दों की उपलब्धता पर विचार कर लेना चाहिए। पर्याप्त समान्तक शब्द उपलब्ध हों तभी उस समान्त पर रचना रचनी चाहिए।
(2) सामान्यतः मात्रिक छंदों में दो, मुक्तक में तीन, सवैया-घनाक्षरी जैसे वर्णिक छंदों में चार, गीतिका में न्यूनतम छः समान्तक शब्दों की आवश्यकता होती है।
(3) समान्तक शब्दों की खोज करने के लिए समान्त के पहले विभिन्न व्यंजनों को विविध प्रकार से लगाकर सार्थक समान्तक शब्दों का चयन कर लेना चाहिए। उनमे से जो शब्द भावानुकूल लगें, उनका प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए समान्त ‘आइए’ के पहले अ और व्यंजन लगाने से बनने वाले शब्द हैं – आइए, काइए, खाइए, गाइए, घाइए, चाइए, छाइए, जाइए … आदि। इनमें से निरर्थक शब्दों को छोड़ देने पर बचने वाले सार्थक समान्तक शब्द हैं– आइए, खाइए, गाइए, छाइए, जाइए … आदि। इन शब्दों के पहले कुछ और वर्ण लगाकर और बड़े शब्द बनाये जा सकते हैं जैसे खाइए से दिखाइए, सुखाइए; गाइए से जगाइए, भगाइए, उगाइए … आदि। इसप्रकार मिलने वाले समान्तक शब्दों में कुछ ऐसे भी होंगे जो रचना में सटीकता से समायोजित नहीं होते होंगे, उन्हें भी छोड़ देना चाहिए। सामान्यतः कुशल रचनाकारों को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ती है लेकिन नवोदितों के लिए और दुरूह समान्त होने पर प्रायः सभी के लिए यह विधि बहुत उपयोगी है।
——————————————————————————————–
संदर्भ ग्रंथ – ‘छन्द विज्ञान’ (चतुर्थ संस्करण), लेखक- ओम नीरव, पृष्ठ- 376, मूल्य- 600 रुपये, संपर्क- 8299034545

Category: Sahitya Kaksha
Language: Hindi
Tag: लेख
4 Likes · 1490 Views

You may also like these posts

मैं उसका और बस वो मेरा था
मैं उसका और बस वो मेरा था
एकांत
भक्ति गाना
भक्ति गाना
Arghyadeep Chakraborty
आकाश से आगे
आकाश से आगे
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
इच्छाओं  की  दामिनी,
इच्छाओं की दामिनी,
sushil sarna
- रिश्तो की कश्मकश -
- रिश्तो की कश्मकश -
bharat gehlot
हंसगति
हंसगति
डॉ.सीमा अग्रवाल
प्रेम उतना ही करो
प्रेम उतना ही करो
पूर्वार्थ
3253.*पूर्णिका*
3253.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
मजदूर की व्यथा
मजदूर की व्यथा
Rambali Mishra
विचार
विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
लोगों को जगा दो
लोगों को जगा दो
Shekhar Chandra Mitra
गुज़ारिश आसमां से है
गुज़ारिश आसमां से है
Sangeeta Beniwal
हाय री गरीबी कैसी मेरा घर  टूटा है
हाय री गरीबी कैसी मेरा घर टूटा है
कृष्णकांत गुर्जर
जून की दोपहर
जून की दोपहर
Kanchan Khanna
कविता __ ( मन की बात , हिंदी के साथ )
कविता __ ( मन की बात , हिंदी के साथ )
Neelofar Khan
"अनुवाद"
Dr. Kishan tandon kranti
भले ही शरीर में खून न हो पर जुनून जरूर होना चाहिए।
भले ही शरीर में खून न हो पर जुनून जरूर होना चाहिए।
Rj Anand Prajapati
मन की कोई थाह नहीं
मन की कोई थाह नहीं
श्रीकृष्ण शुक्ल
हाथ जिनकी तरफ बढ़ाते हैं
हाथ जिनकी तरफ बढ़ाते हैं
Phool gufran
हास्य घनाक्षरी ( करवा चौथ)
हास्य घनाक्षरी ( करवा चौथ)
Suryakant Dwivedi
हाय वो बचपन कहाँ खो गया
हाय वो बचपन कहाँ खो गया
VINOD CHAUHAN
Writing Academic Papers: A Student's Guide to Success
Writing Academic Papers: A Student's Guide to Success
John Smith
कवि के हृदय के उद्गार
कवि के हृदय के उद्गार
Anamika Tiwari 'annpurna '
*
*"बादल"*
Shashi kala vyas
उफ ये खुदा ने क्या सूरत बनाई है
उफ ये खुदा ने क्या सूरत बनाई है
Shinde Poonam
वसियत जली
वसियत जली
भरत कुमार सोलंकी
जिंदगी आगाज है
जिंदगी आगाज है
Manoj Shrivastava
बाण मां के दोहे
बाण मां के दोहे
जितेन्द्र गहलोत धुम्बड़िया
ग़ज़ल-न जाने किसलिए
ग़ज़ल-न जाने किसलिए
Shyam Vashishtha 'शाहिद'
चुनाव में मीडिया की भूमिका: राकेश देवडे़ बिरसावादी
चुनाव में मीडिया की भूमिका: राकेश देवडे़ बिरसावादी
ऐ./सी.राकेश देवडे़ बिरसावादी
Loading...