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17 Oct 2021 · 1 min read

चलो साथ मेरे मंजिल तलाशें

( अरुण कुमार प्रसाद)
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उठाओ यहाँ से ये बिस्तर ऐ राही।
चलो साथ मेरे मंजिल तलाशें।
यहाँ धूप फैला, कहीं छांव होगी;
इस स्रष्टा के सारे समुंदर तलाशें।

तुम्हें जो लुभाती है वनिता की भौहें।
तुम्हें जो लुभाता है नन्हा सा बचपन।
वनिता की भौहें,इस नन्हें से बचपन को
“रक्षित कल” भी तो करना है अर्पण।
उठाओ यहाँ से ये बिस्तर ऐ राही।
चलो साथ मेरे मंजिल तलाशें।

रोटी में हिस्सा नहीं तेरी मंजिल।
रोटी उपजावें तुम्हारा हो मंजिल।
चुल्लू में पानी ही पाना न नियति हो।
सको खोद कुंआ,तुम्हें चाहिए यह।
उठाओ यहाँ से ये बिस्तर ऐ राही।
चलो साथ मेरे मंजिल तलाशें।

अगर आज के भूख से डर गए तुम
कल भी तुम्हारा भूखा रहेगा।
होकर भी भूखा है बोना किसानों सा
अथवा तुम्हारा कल सूखा रहेगा।
उठाओ यहाँ से ये बिस्तर ऐ राही।
चलो साथ मेरे मंजिल तलाशें।

लहू का है क्या! मौत की ही तो थाती,
इसे आज चलो जीवन को अर्पण करेंगे।
न परचम,न नारे,न उदघोष कुछ भी
अपने को खुद ही समर्पण करेंगे।
उठाओ यहाँ से ये बिस्तर ऐ राही।
चलो साथ मेरे मंजिल तलाशें।
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