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7 Oct 2021 · 2 min read

वृक्ष का खत‚ मनुष्य को

बुनियादी तौर पर
मानवीय सृष्टि व विकास का
सर्जक व संवाहक –
मैं वृक्ष‚ था और हूँ और रहूँगा।
मैं संभावनाओं का समन्दर ॐ आज भी‚
कभी यदि ऐसा हो कि
मैं या मेरे जैसे लोग
कटे हुए वृक्षों की संज्ञा लेकर
हो जायें धराशायी तो
संभवतः तुम सोच नहीं पा रहे हो कि
इस गोल–मटोल पृथ्वी का कितना बुरा होगा हश्रॐ
इसे पृथ्वी की तरह पहचानने वाला ही कोई न होगा।
इसलिए आकाश‚पाताल‚तल‚धरातल‚कोण‚त्रिकोण
तमाम आयामों में हल्ला करो कि
वृक्ष जैविक सृष्टि का सर्जक और संवाहक है।
इसलिए इसे बचाने हेतु करो आन्दोलन
फैलाओ सत्यता के चिराग शब्दों में‚कर्मों में।
गिरकर धरती पर एक कटा हुआ वृक्ष
मृत होने से पूर्व कहता है–
गर्व कर रहे मनुष्य से कि
तुमने मेरे देह पर नहीं चलाई है कुल्हाड़ियाँ
बल्कि चलाई है अपने पैरौं पर कुल्हाड़ियाँ।
जो जख्म तुमने लिए हैं स्वाभिमानी
उनमें यथा समय भरेगा मवाद ‚ भरेंगे ही।
तुम लँगड़ाओगे।
फिर मवाद का यह जहर
जिस्म में जब फैलेगा तब बूझोगे।
मुझे भी पूरी जिन्दगी जीने की चाहत थी।
यूँ अकाल मृत्यु मर जाऊँगा
सोचा न था।
मेरी नियति यह तो नहीं थी
जो कर दिया तूने।
यदि मैं कठोर होता‚काशॐमेरा तन कोमल न होता।
पर तब मैं पत्थर होता‚संवेदना–शुन्य।
फिर मेरे होने न होने का
कोई मतलब ही नहीं होता।
और तथाकथित ब्रह्मा का यह विशाल ब्रह्माण्ड
होता स्पन्दनहीन।
बियावान सा एवम् श्मशान सा नीरव।
उम्र पूछकर अपना न करो अपमान।
मेंरे उम्र का गणित तुम्हारे अपने वर्षों का हिसाब है
इसे करो।
मैं अभी जवान हुआ हूँ‚जीवन संगिनी ढूँढ़ रहा हूँ‚
बसाना है मुझे घर।
हँसना है‚उसे गुदगुदाकर हँसाना है।

अपनी उपस्थिति से
तमाम प्रतिकूलताओं के विरूद्ध करते रहना है आश्वस्त।
मुझे उम्र की लम्बी दहलीज पर
उम्र के तमाम अनुभवों को अनुभव करने की तमन्ना है।
ऐश्वर्य प्राप्ति की नहीं।
न तो सम्राट होने की।
मैं नदी की चौड़ाई का दुश्मन।
मैं जो वृक्ष की सारी जीवन्तताओं के साथ
वृक्ष होने की गरिमा से अभिभूत खड़ा हूँ
उसे काटकर कर दोगे लाचार और बेबस।
अकाल मृत्यु की यंत्रणा और इसका अहसास
अत्यन्त भयंकर है।
मुझे इस भयंकर व्यथा को झेलने को
विवश कर देने के लिए
कटिबद्ध तुम‚
नदी की धारा मैं अपाने लिए नहीं
तुम्हारे लिए रोक रहा हूँ
ताकि तुम्हें जीवन का आदि रस प्राप्त हो‚
तुम्हारी धरती अक्षुण्ण रहे‚
समुद्र में न बिला जाय।
बरकरार रहे तुम्हारे हवा में शीतलता।
शुष्क होकर‚गर्म होकर कहीं रेत न फैला दे वह।
तुम्हारे ही अस्तित्व पर लगा देगा प्रश्नचिन्ह‚
तुम्हारी करतूतें।
अतः क्रूर न होओ।
तुम शंभवतः नहीं जानते
तुम्हारी क्रूरता में चाहे जितनी क्षमता हो
तुम्हारे अहम् को संतुष्ट करने की
अन्ततः तुम
मुझे काटकर अपना विनाश रोपोगे।
पत्र के अन्त में लिखता हूँ मैं
जैसा तुम भी लिखते हो–थोड़ा लिखा –ज्यादा समझना।
शेष शुभ।

28।12।1995 अरूण कुमार प्रसाद

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