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17 Jul 2021 · 3 min read

“ममता वाले हाथ छुट गए”

कैसे हम भूल गए कि हमकों सूखे बिस्तर पर सुलाकर वो खुद गीले में सो जाती थी। कैसे हम भूल गए कि अपने ख़ुद भूखे रहकर अपनी अमृत वाली छाती हमें पिलाया। हम कैसे भूल गए जब हम बचपन मे नंगे पांव दौड़ लगाते थे तो वो हमारे रास्ते के कंकड साफ कर देती। हम कैसे भूल गए उस काले ठीके को जो हमें लगाती थी कि किसी की नज़र न लग जाये। क्यों हमनें ममता वाले सभी बंधन तोड़ कर उस ममत्व की देवी को बेसहारा छोड़ दिया। आज पश्चताप की आग में भूपति और श्यामू जल रहे थे। रामलाल जी के गुजरने के बाद रुक्मिणी देवी अपने दोनों की परवरिश में कोई कमी नहीं रखा। भूपति और श्यामू को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए दिन-रात मेहनत करती थी। भूपति और श्यामू को कभी पिता की कमी महसूस नही होने दिया। भूपति और श्यामू भी अपनी माँ को भगवान की तरह पूजते थे। धीरे-धीरे समय बीतता गया भूपति और श्यामू बड़े हो गए। पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद ही भूपति और श्यामू की सरकारी नौकरी लग गयी। रुक्मिणी देवी के तो जैसे भाग्य खुल गए थे क्योंकि दोनों बेटो की नौकरी जो पक्की हो गयी थी। संयोग की बात ये थी कि एक ही नगर पंचायत में दोनों भाइयों की नौकरी लगी थी। भूपति और श्यामू ने मिलकर विचार-विमर्श किया कि अब माँ को अपने पास शहर में बुला लेते हैं। एक दिन श्यामू गांव जाकर माँ को शहर लाता है। रुक्मिणी देवी की ज़िंदगी अच्छे से कट रही होती है कि अचानक से उनके जीवन मे भूचाल आ जाता है। भूपति और श्यामू के बीच ऑफिस के काम को लेकर मनमुटाव हो जाता है। ये मनमुटाव ऑफिस से घर में भी प्रवेश कर जाता हैं। भूपति और श्यामू बात-बात पर झगड़ा करने लगते है, रुक्मिणी देवी उन दोनों को समझाने की कोशिश करती है तो वो दोंनो भाई माँ को बुरा-भला कहते है। एक दिन भूपति और श्यामू तय करते है कि आज से ही वो दोनों अलग रहेंगे। रुक्मिणी देवी के लाख समझाने कर बाद भी दोनों भाई अलग हो जाते है। अब बारी आती है कि माँ किसके साथ रहेगी तो भूपति बोलता है तू अपने साथ रख श्यामू बोलता है तुम अपने साथ रखों। उन दोनों में से कोई भी रुक्मिणी देवी को साथ नही रखने की जिद पर अड़े रहते हैं, तभी रुक्मिणी देवी कहती है कि मैं गांव चली जाती हूँ। भूपति माँ को गांव छोड़ आता है। रुक्मिणी देवी दिन-रात यही सोचती है कि मेरी परवरिश में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि मेरे दोनों बेटे मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया। यही सोच-सोच कर रुक्मिणी देवी कई रोगों से ग्रसित हो जाती है, हाथ-पांव भी नही चलाये जाते। दो वक्त की रोटी के लिए लाले पड़ जाते उनको कौन बनाये कौन खिलाए और कौन इलाज कराए। अपने दोनों बेटों को खबर भी भेजती है लेकिन उन दोनों में से कोई उनकी सुध नही लेता। एक दिन रुक्मिणी देवी खुद बेटों के पास जाने का सोचकर घर से निकलती है लेकिन गांव के रास्ते में बस से टकरा जाने से उनकी मौत हो जाती है। भूपति और श्यामू को गांव के लोग खबर करते है तो दोनों भाई भागे-भागे आते है। लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकि होती है। रुक्मिणी अपने बच्चो को अपना पूरा जीवन दे दिया लेकिन उसके बच्चे उनको रूखी-सुखी रोटी भी नही खिला सके। भूपति और श्यामू बस एक ही बात कह करके रोते है कि हम दोनों भाईयों के मतभेद ने ममत्व की देवी हमारी माँ को हमसे छीन लिया। आज हमारे कुकृत्यों की वजह से ममता वाले हाथ छूट गए।
“जो लोग भी माँ जैसी देवी को अपने घर में नही रख सकते चाहें लाखों पूण्य करले उसका फल उनकों कभी नही मिलता”।

स्व रचित-
आलोक पांडेय गरोठ वाले

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