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12 Aug 2020 · 3 min read

क़तील शिफ़ाई

संजय भाई अपने आप को साहित्यिक किस्म का इंसान समझते थे। इस वजह से दोस्तों मे उनका थोड़ा रौब और इज्जत भी थी। कोलकाता की बड़ाबाजार लाइब्रेरी मे उनका अक्सर आना जाना था। जो साहित्य चर्चा की एक महत्वपूर्ण जगहों मे से एक है।

एक दो कवितायेँ भी अखबारों मे छप चुकी थी। उनकी जान पहचान कुछ वाणिज्य संकाय के छात्रों से थी। जो बेचारे वैसे भी साहित्य से थोड़ा दूर ही रहते है, लेन देन की प्रविष्टियों और तलपट मिलाने के चक्कर मे सुसंस्कृत होने का मौका भी नही मिल पाता।

इनसे दोस्ती का असर अब उन छात्रों पर भी दिखने लगा था। एक ने अपनी टूटी फूटी हिंदी भाषा मे एक कविता लिखने का प्रयास किया और संजय भाई को दिखाई।

संजय भाई ने कविता देखी और उसमें १०-१२ गलतियां गिना दी और बातों बातों मे ये भी जता दिया कि ये सब उसके बस की बात नही है, साहित्य लिखने के लिए सृजनशील मस्तिष्क की जरूरत है ,साथ ही भाषा का ज्ञान और शब्दों पर पकड़ मजबूत होनी चाहिए।

बात तो उन्होंने ठीक ही कही थी पर लहजा थोड़ा तल्ख और कहीं उपहास वाला हो गया।

ये बात उस छात्र के दिल पर लग गयी। कुछ कहा नही पर हिम्मत भी नही हारी।

तीन चार दिन बाद , हाथ मे एक कागज का पुर्जा लिए फिर हाज़िर हो गया। संजय भाई पास की दुकान पर बैठे चाय पी रहे थे।
छात्र ने डरते डरते पुर्जा निकाल कर दिया और बोला कि भाई ग़ज़ल के दो शेर लिखे है, अभी पूरी मुकम्मल तो नही हुई , आप जरा इस्लाह (सुधार ,संशोधन ) कर दें, तो बाकी के शेर भी लिख डालूँ।

पुर्जा हाथ मे पकड़ते हुए , उन्होंने इस तरह देखा कि कह रहे हों कि तुम क्यूँ अपना और मेरा वक़्त बर्बाद कर रहे हो।

फिर मुस्कुरा कर बोले, जब गुरु मान ही लिया है तो लाओ तुमको भी थोड़ी दीक्षा दे ही दूँ। और ये भी कह दिया कि चाय के पैसे उसे देने होंगे । छात्र ने हाँ मे सर हिला दिया। तब तक एक दो और परिचित छात्र भी आ पहुंचे थे।

ग़ज़ल के दो शेर कुछ यूं थे

रची है रतजगों की चांदनी जिनकी जबीनों मे
“अरुण” एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों मे

तलाश उनको हमारी तो नही पूछ जरा उनसे
वो कातिल जो लिए फिरते है खंजर आस्तीनों मे

संजय भाई ने देखा तो शेर तो ठीक ठाक लगे, पिछली बार की कविता से तो अच्छे लिखे थे।

बोले, संगत का असर दिख रहा है तुम पर , फिर अपना पेन निकालते हुए बोले, ये पहले शेर मे ही तुमने अपना नाम लिख दिया, इतनी भी क्या जल्दी पड़ी है, ग़ज़ल के अंत मे लिखते। खैर लिख दिया है तो कोई बात नहीं, अब से ध्यान रखना।

छात्र ने एक शिष्य की तरह गुरुजी के इस ज्ञान को नतमस्तक होकर ग्रहण कर लिया।

ये दो शेर संजय भाई की स्कूल से पढ़ लिख कर कुछ इस खूबसूरती के साथ आये।

रची है रतजगे की चांदनी जिनकी जमीनों पे
“अरुण” एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनो मे

तलाश उनको हमारी है क्या, जरा जाके पूछ उनसे
ये कातिल जो लिए फिर रहे हैं, खंजर आस्तीनों मे।

संजय भाई ने कहा , गलत शब्द मत लिखा करो । चांदनी जमीन पर बिखरती और रचती है। जबीनों कहाँ से ले आये? एक शब्द भी शुद्ध नही लिख सकते!!!

और इस तरह हसीनों की पेशानी या चेहरा जमीन मे तब्दील होकर, चाय के पैसे चुकाकर चला गया।

तो बाद मे आये दो छात्रों ने चुटकी ली, संजय भाई आज मान गए आपको,

आपने मशहूर शायर और गीतकार कतील शिफ़ाई को भी ग़ज़ल लिखनी सीखा ही दी। लाइये चरण दीजिये आपके, थोड़ी धूल हम भी माथे पर लगालें।

इतना सुनते ही संजय भाई का चेहरा देखने लायक था। फिर उनके मुंह से जो शब्द झरे ,वो छापने योग्य नहीं हैं।

क़तील शिफ़ाई साहब की रूह , ये जानकारी मिलने पर अपनी एक बेहतरीन ग़ज़ल से छेड़छाड़ के इल्जाम मे उनको गिरफ्तार भी करवा सकती है।

पर संजय भाई तो अरुण को शेर लिखना सीखा रहे थे ना?

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