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8 May 2020 · 1 min read

हिसाब बराबर

विनय अपने माता पिता से अलग हो रहा था । जिसके परिणामस्वरूप उसके दहेज तथा भेंट स्वरूप जितने भी समान वगेरह उसे प्राप्त हुई थी । वो सब निकालकर अलग कर रहा था ।

“ठीक है पापा मेरे नाम से जितने भी सामान थे सब मैं अलग कर चुका हूं ।”

“ठीक हैं बेटा जो तुझे ले जाना है खुशी से लेजा हम दोनो के लिए बस ये चारदीवारी मकान ही काफी है, सबकुछ हमने तेरे लिए ही तो जमा करके रखें थे ।”

“पापा मुझे ये सब नही पता । मेरा कहना ये है कि पूरा “हिसाब बराबर” होना चाहिए न मुझे घाटा हो न ही आपको नफ़ा ।”

इतने में ही माँ बोल पड़ी

“बेटा अगर तू हिसाब बराबर ही करना चाहता है तो, ला वो मुझे उस असहनीय पीड़ा का दाम दे जिस समय तुझे जन्म देते वक्त मुझे हुआ था, बचपन से लेकर आज तक हमने तुझे आंखों पर रखकर वात्सल्य स्नेह दिया उसका मोल हमे दे, तेरे जाने के बाद जो हमे पुत्र वियोग में पीड़ा होगी इस मर्ज की दवा हमे लाकर दे दे । तब कहीं जाकर “हिसाब बराबर” होगा ।”

अंततः विनय इन जुमलों को सुनकर निःशब्द हो गया और आँखों मे पश्चाताप के आँसू लेकर उसने माता पिता से क्षमा याचना करते हुए कहने लगा “सच में मैं तुम्हारा “हिसाब” कभी भी बराबर नही कर पाऊंगा ।”
और सामान वापिस घर मे सजाने लगा ।

© गोविन्द उईके

Language: Hindi
1 Comment · 294 Views

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