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7 Jul 2019 · 1 min read

बेजमीरों के अज़्म पुख़्ता हैं

रूबरू जब कोई हुआ ही नहीं
ताक़े दिल पर दिया जला ही नहीं

ज़ुल्मतें यूं न मिट सकीं अब तक
कोई बस्ती में घर जला ही नहीं

बेजमीरों के अज़्म पुख़्ता हैं
ज़र्फ़दारों में हौसला ही नहीं

नक़्श चेहरे के पढ़ लिये उसने
दिल की तहरीर को पढ़ा ही नहीं

उम्र भर वो रहा तसव्वुर में
दिल की ज़ीनत मगर बना ही नहीं

हमने अश्कों पर कर लिया क़ाबू
ग़म का तूफ़ान जब रुका ही नहीं

वह अंधेरों का दर्द क्या जाने ?
जिसका ज़ुल्मत से वास्ता ही नहीं

– अरशद रसूल

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