मुक्तक
सम्भल के तुम जरा चलना, कहीं पंगा न हो जाये
कहीं रुसवा यहाँ मज़हब और ये गंगा न हो जाये
चुनावी रोटियाँ सिकने लगी हैं, फ़िर से सूबे में,
मुझे डर लग रहा है फिर कोई दंगा न हो जाये
सम्भल के तुम जरा चलना, कहीं पंगा न हो जाये
कहीं रुसवा यहाँ मज़हब और ये गंगा न हो जाये
चुनावी रोटियाँ सिकने लगी हैं, फ़िर से सूबे में,
मुझे डर लग रहा है फिर कोई दंगा न हो जाये