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10 Oct 2018 · 1 min read

पत्ते बिखर-बिखर सी गई

पत्ते बिखर-बिखर सी गई
टूट-टूट कर डाली से,
अनबन हो गई हो जैसे
बसंत को हरियाली से।।।

अंग-अंग अब टूट रही है
झुम रही पूर्वाइ से,
कुम्हला गई है यौवन गुलों के
पछुवा की अंगड़ाई से।।।

कलियाँ भी शरमा रही अब
देख भवरे की टोली से,
झुम कर पीने चलें हों जैसे
फाग के मय की प्याली से।।।

तन मन पुलकित हो उठता है
रंगों और रंगोली से,
खफा खफा सी क्यू हो ‘प्रिय’
तुम मेरी मधुर ठिठोली से।।।

-के. के. राजीव

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