Ghazal
کب ہیں آباد اگرچہ سہی برباد نہیں
وقتـٍ رْخصت تجھے کیا دارْ رسن یاد نہیں
آہ پھولوں میں گھلی ہے تو چمن مہکا ہے
کیا دعاؤں میں تری آرش فریاد نہیں
ہم لہو پاش ہوے رنگ سحن نکھرا تب
تم یوں کہتے ہو ہمیشہ ہی کے ہم شاد نہیں
گرم شعلوں نے تپایا مرا مہتاب بدن
اب مری آہ گزاری بھی تمہیں یاد نہیں
چرخ موسم سے نکلتے ہیں ہمارے آنسو
ہیں مرے لفظ تھکے سے کوی روداد نہیں
اے وطن تیرا فریضہ نہ قضا ہونے دیا
یہ الگ بات زباں باز خودی داد نہیں
تیری مٹی سے ہی اپجے ہوے کھلیان ہیں ہم
کسی مخفی سے ادارے کی تو ایجاد نہیں
شاہ ہم نے ہی سکھایا ہے جوانی کو غرور
رشک والوں کیا مرا(رنگ) ذرد کفن یاد نہیں
कब हैं आबाद अगरचे सही बर्बाद नहीं
वक़्त ए रुख़्सत तुझे क्या दारो रसन याद नहीं?
आह। फूलों में घुली है तो चमन महका है
क्या दुआओं में तेरी आरिशे फरयाद नहीं?
हम रही पाश हुए रंगे सहन निखरा तब
तुम यूं कहते हो हमेशा ही के हम शाद नहीं?
गर्म शोलों ने तपाया मेरा महताब बदन
अब मेरी आह गुज़ारी भी तुम्हें याद नहीं?
चर्ख़ मौसम से निकलते हैं हमारे आंसू
हैं मिले लफ़्ज़ थके से कोई रूदाद नहीं।
ए वतन तेरा फ़रीज़ा न क़ज़ा होने दिया
ये अलग बात ज़बां बाज़ ख़ुदी दाद नहीं।
तेरी मिट्टी से ही उपजे हुए खलियान हैं हम
किसी मख़्फ़ी से इदारे की तो ईजाद नहीं।
शाह हमने ही सिखाया है जवानी को गुरुर
रश़्क़ वालों क्या मिरा ज़र्द(रंगे)कफ़न याद नहीं?
शहाब उद्दीन शाह क़न्नौजी