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22 Jul 2016 · 1 min read

गजल

109/09/07/2016
20.07.2016

सनम अब छोड़ दे तू बेरुखी को
महब्बत में न कर रुसवा किसी को

मुनव्वर प्यार से है दिल की दुनिया
मुबारकबाद ऐसी रौशनी को

किसी दिन दुश्मनों से पूछ लूंगा
कहाँ ढूंढूं मैं अपनी दोस्ती को

पराया जुर्म अपने नाम करके
मिटाना चाहता हूँ दुश्मनी को

मुझे बस मुस्कुरा के देख लो तुम
लुटा दूंगा मैं तुमपर जिंदगी को

मुझे काफिर समझता है ज़माना
खुदा जाने है मेरी बन्दगी को

किसी की याद में अब खो गयी है
चलो ढूंढें जरा हम जिंदगी को

सुख़नवर जानता है सारे पहलू
ग़ज़ल में ढूंढ लेगा सादगी को

महब्बत की डगर इतनी हसीं है
तलाश ए यार में पाया ख़ुशी को

कभी तो हाल मेरा पूछ ले फिर
मिटा दे “दर्द” की इस तश्नगी को

दर्द लखनवी
मनमोहन सिंह भाटिया
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