2- साँप जो आस्तीं में पलते हैं
ज़ह्र अपनों पे ही उगलते हैं
साँप जो आस्तीं में पलते हैं
हम जिताते हैं वोट दे के जिन्हें
वे ही छाती पे मूँग दलते हैं
जाने बदनाम क्यों हैं गिरगिट ये
रंग जब इंसाँ भी बदलते हैं
नाक रगड़ो या अपना सर पटको
दम्भी इंसान कब पिघलते हैं
जिनकी ख़ातिर लड़े ज़माने से
आज कल हम उन्हीं को खलते हैं
दिल-ए-नादाँ को दोष क्या देना
ख़्वाब आँखों में सारे पलते हैं
चलने वाले तो पाते हैं मंजिल
बैठने वाले हाथ मलते हैं
अजय कुमार ‘विमल’