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22 Feb 2024 · 1 min read

आजाद लब

निरा यह व्यर्थ कहना कि
हुए आजाद लब मेरे,
किया कोशिश हजारों पर
खुले अल्फाज नहि मेरे।

अभी कल रस्म हल्दी थी
चढ़ाना जब था वो सेहरा,
मुसलसल सांस टूटी है
हुआ निस्तेज है चेहरा।

सिंदूरी आभा थी जिसकी
बदन कमनीय था जिसका,
दमकति दामिनी बन कर
नयन मृगनयनी सा उसका।

घनी जुल्फे थी उसकी यू
लटकती भाल पर वैसे ,
नदी की वारि आंधी में
लहर बलखाती हो जैसे।

प्रथम देखा था जब उसको
हुई निशब्द सी वाणी,
किया लाखो यतन पर
बात ना बनती है कल्याणी।

बहुत कुछ कहना चाहा था
मगर कुछ कह नहीं पाया,
नजर जैसे पड़ी मुझ पर
मिला नजरे नही पाया।

हँसी का एक फव्वारा
अचानक उसने था फोड़ा,
मेरा संकोच ही बनता गया
हमारे राह का रोड़ा।

बिसाते सजते ही जारी हुआ
शह मातों का वह खेल,
शकुनि संग खेलते तुम थे
रहेगा कैसे मुझसे मेल।

जरूरत थी बगीचे को
लहू से सींचा था हमने,
बहारों ने दिया दस्तक
कोई ना काम अब हमसे।

बात गहरे ज़माने की हुई
पर यादें है ताजा,
मेरी रानी न बन पायी
न बन पाया मैं राजा।

देखता स्वप्न हूँ दिन में
ख्वाब आँखों से नहि जाता ,
तेरा चेहरा सलोना वो
दूर नयनो से नहि होता।

बात निकली जो हाथों से
पुनः बनती नहीं निर्मेष,
व्यर्थ पछताना है, चिड़िया
जब चुग गयी है खेत।

निर्मेष,

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