(24) कुछ मुक्तक/ मुक्त पद
(1)
तुम्हारी एक सिसकी ने, मुझे अपना बना डाला
तुम्हारी एक सिसकी ने, बियाबां मुझको दे डाला
तुम्हारी एक सिसकी ने, मुझे सागर बना डाला
तुम्हारी एक सिसकी ने , मुझे आकाश दे डाला
कसम तुमको , मिलो यदि भूल से भी तुम कभी मुझको
हँसी का फूल ही होठों पे अपने तुम खिला लेना ,
अगर एक बूँद आँसू का गिरा आँखों से भूले से ,
कहीं जग यह न देखे, बूँद ने यह जग जला डाला।।
(2)
कठपुतली में जान डाल दे, ऐसे कुछ उद्बोधन होंगे
ढलते आँसू रक्त पुष्प हो, ऐसे कुछ संबोधन होंगे ।
होंठों की पपड़ी पर खिलते कमल –कभी तो सपना देखो
थोथे शब्द धूल धूसित हैं, स्वेद बिंदु से फूल खिलेंगे ।
(3)
नहीं जादू कोई तेरी निगाहों का चला करता
मेरे मन के रसायन हैं जो जादू बन रहे तुझमे
मेरे मन में ही अब तक पल रहे थे ख्वाब सदियों से
घनी पलकों के नीचे ढूंढता जो ख्वाब मैं तुझमें
(4)
नजर को क्या है , भटकती रहती है , काम है उसका
नजरिये ही कदम आगे बढाते , रोकते , पीछे हटाते हैं ।
कदम बढ़ पाए न आगे ,नजरिये को दिखा खतरा ,
“नजरिया तंग है ” बड़ी भोली नजर की यह शिकायत है ।
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम