(2) ऐ ह्रदय ! तू गगन बन जा !
ऐ ह्रदय ! तू गगन बन जा !
नव- विचारों के विहग नव, नित उड़ें उन्मुक्त होकर
चटक रंगों से रँगे पंखों सहित बल खा रहे हों
तू इन्हें उल्लास दे जा , सहज-बुद्धि प्रकाश दे जा
अरे ! तू मेधा-पवन की फरफराहट सहज बन जा |
ऐ ह्रदय ! तू पवन बन जा !
नित नया कर्दम समेटे , क्षुद्र सरिताएं भी आयें
मर्म पर आघात करती, वृहद् चट्टानें भी लायें
अरे ! तू चट्टान को खंडित करे, मोती बना जा
तू महा हिल्लोल लेता तरंगायित जलधि बन जा |
ऐ ह्रदय तू जलधि बन जा !
खींच ले तू धरणि बन कर , सभी विषमय श्वांस जो हों
रोग दूषण के जनक, सड़ते, जगत के पाप जो हों
उर्वरक उनका बना, नव-पौध का पोषण बना जा |
ऐ ह्रदय ! तू धरणि बन जा !
तुमुल कोलाहल जगत का, करुण-क्रंदन-रुदन जग का
नित विघटता स्वयं को, स्वर दुन्दुभी आघात का
लीन कर ले आत्म में तू, शौर्यमय नव शब्द बन जा |
ऐ ह्रदय ! तू मुखर बन जा !
उड़ा जा तू विघ्न पर्वत, शांत कर सरिता तरंगित
क्रूर-तरु, इन भाग्य- अंकों को तू जड़ से ही गिरा जा
आज अंधड़ लिए मन में , वात- चक्रित तड़ित बन जा |
ऐ ह्रदय तू तड़ित बन जा !
कुटिल विषधर सघन-वन से निकल कर जो डँस रहे हों
भाव-शिशुओं को जो हिंसक व्याघ्रादिक खा रहे हों
सघन वन को दाह करने अरे ! तू दावाग्नि बन जा |
ऐ ह्रदय ! दावाग्नि बन जा !
स्वरचित एवं मौलिक (काव्यसंग्रह “मौन के आयाम” से )
रचयिता :(सत्य) किशोर निगम