(10) मैं महासागर हूँ !
मैं महासागर हूँ !
बात-बात में झरते ये आंसू ,
बस इन्हें देखकर ही क्या ,
कहते हो मुझे पोखर ?
पर ये तो ,मेरे अन्दर अनवरत खेलती
मस्त लहरों की
अठखेलियाँ हैं
जो तुम्हें ऊपर से नीचे तक
भिगो जाती हैं |
सुनो मेरी उछलती लहरों का शोर |
मैं छिछला पोखर नहीं ,
वास्तव में , महासागर हूँ . ।
पूरे चाँद के दिन
मेरे ज्वार-भाटे का भयानक शोर
क्या तुम नहीं सुनते ?
क्या मेरे अन्दर के खारेपन का परीक्षण ,
तुम नहीं कर पाते ?
क्या नहीं सुनी
मेरी बाड़वज्वाला में नष्ट हो गए ,
विशालकाय जहाजों की
अगणित कहानियां ?
मुझमें तैरना सरल है — इस भ्रम में
आगे मत बढना .
लहरें अनंत में खींच ले जायेंगी ।
मेरे तटों पर पड़े ये मोती देखो
क्या नहीं बताते ये कहानी
उन खजानों की ,
गर्भ में अपने जो , मैंने छिपा रखे हैं ?
डूबो और पाओ ।
क्या नहीं सुनी मेरे अन्दर तैरती ,
उन विशाल मछलियों की कथाएं
खा जाती हैं जो क्षण में नाविकों को ?
ये वही जीव हैं ,
जिनके आंसू कोई देख नहीं पाता ।
नहीं , तुम्हारे कह देने भर से ,
मैं पोखर नहीं हो सकता |
नहीं है यह कोई गर्वोक्ति . यही सत्य है —
मैं महासागर हूँ |
और झाँको अपने अंदर भी
पाओगे वहाँ भी तुम
लहराता , मचलता
एक महासागर |
हाँ , हम सब हैं
अलग, अलग
अनोखे,
विशाल महासागर |
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम