? ग़ज़ल-२ ?
एक कोशिश आपके हवाले …..
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दिन ढलते ही जम जाती है ,महफिल जब तनहायी की;
कुछ साये करते हैं हरदम बात तेरी रुसवाई की..!!
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आँखों की लाली से दिन के उजियारे ने भी पूछा;
खाब तुम्हारे ज़ख्मी क्यों हैं , किसने हाथापाई की..!!
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हाय सिसकते आहें भरते कितने दिन और रात गये;
उन बंजारे लम्हातों की तुमने कब भरपाई की..!!
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दीवारें भी मुझको मुजरिम मान चुकी हैं बरसों से;
मैंने भी तो इनको रँगकर केवल रस्म अदाई की..!!
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आखिर आँधी – तूफानों में मैं ही क्यों हरबार जलूँ;
ज़िम्मेदारी कुछ तो होगी हाँ मेरे हमराही की..!!
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?अर्चना पाठक “अर्चिता”?
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