लोकतंत्र का पर्व महान - मतदान
घर बाहर जूझती महिलाएं(A poem for all working women)
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
कुछ औरतें खा जाती हैं, दूसरी औरतों के अस्तित्व । उनके सपने,
थक चुका हूँ बहुत अब.., संभालो न माँ,
हर दिल गया जब इस क़दर गुनहगार हो
जो कण कण में हर क्षण मौजूद रहता है उसे कृष्ण कहते है,जो रमा
मेरी पहली कविता ( 13/07/1982 ) " वक्त से "
एक नासूर हो ही रहा दूसरा ज़ख्म फिर खा लिया।
हमें पदार्थ से ऊर्जा और ऊर्जा से शुद्ध चेतना तक का सफर करना