ज़ख्म…
जाने क्या खता हुई, जो वो रूठ गया
उसका दिया हर ज़ख्म, अब भी गहरा सा है…
कभी रहती थी, आँखों के सामने हर पल
आजकल उन यादों पर, लगा पहरा सा है…
सोच में डूबी रहती हूँ, शब-औ-सहर
वक़्त की शाख पर कोई, पल ठहरा सा है…
सालों चिल्लाते रहे, मोहब्बतें बतलाने को
लगता है इस शहर का, हर शख्स बहरा सा है…
वो देख! तेरे वहम से जिंदा है ‘अर्पिता’
आज भी उन पलकों में, सपना सुनहरा सा है…
– ✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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