मैं मुर्दों की आवाज़ था।
दोस्तों,
एक ताजा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतो के हवाले,,,,,,,!!!
ग़ज़ल
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दुःख है मुझे कि मैं मुर्दो की आवाज़ था
ज़मीर न था,रखता मैं उन्ही का राज़ था।
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करते रहे सितमगर, मेरे कंधे की सवारी,
मुझे लगा, मैं गगन का शिकारी बाज़ था।
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मकसद मे होते रहे,अकसर वो कामयाब
भ्रम मे जीया जैसे मैं ही उनका आज़ था।
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बढ़ता रहा बेखौफ,अंगारो की जानिब मैं
मेरा हर जो कदम, जैसे नया आगाज़ था।
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जब हुआ जुदा कोई आंख, मायूस न थी
मुस्कुरा रहे थे लोग जिन पे मुझे नाज़ था।।
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अपनी धून मे जीता गया मैं शायर “जैदि”
ख़्यालो मे मेरे,कभी न तख्त-ओ-ताज़ था।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर (राज)