‘ग़ज़ल’
‘ग़ज़ल’
जिसे वतन से अपने कोई मोहब्बत नहीं है,
उसे उस ज़मी पर रहने की भी जरूरत नहीं है।
खाई थी जुदा न होने की कस्में जिन्होंने कभी,
कहते हैं वो मिलने की उन्हें फुरसत नहीं है।
झूठ से नफरत बहुत किया करतेे थे जो कभी,
सच सुनने की भी अब उनकी आदत नहीं है।
सुर्खियों की फ़िराक में बदी की चादर ओढ़ ली,
शायद उनमें बची अब कोई शराफ़त ही नहीं है।
बेवजह दूसरों पर जो सितम किया करते हैं,
करता खुदा उनपर कभी कोई इनायत नहीं है।
©®
गोदाम्बरी नेगी
हरिद्वार