ग़ज़ल
बस यूँ ही-
ज़माने की रविश के साथ तुम बहती नदी निकले,
बहुत उम्मीद थी तुमसे मगर तुम भी वही निकले।
हर इक शय पर वो क़ादिर है अगर उसकी रज़ा हो तो,
चराग़ों से उठे ख़ुश्बू गुलों से रौशनी निकले ।
किसी को बे वफ़ा कहने से पहले सोच भी लेना,
कहीं ऐसा न हो इसमें तेरी अपनी कमी निकले।
जिसे देखे ज़माना हो गया इस आख़री पल में ,
नज़र आ जाए वो चेहरा तो दिल की बेकली निकले।
जहाँ शीशे का दिल देखा वहीं को हो लिए सारे,
तुम्हारे शह्र के पत्थर बड़े ही पारखी निकले ।
वफ़ा की राख दरिया में बहा आओ कि फिर उसमें,
कहीं ऐसा न हो फिर कोई चिंगारी दबी निकले।
शिखा नक़्क़ाद के मीज़ान पर थी जब ग़ज़ल मेरी,
रदीफ़ ओ क़ाफ़िया औज़ान सब बिल्कुल सही निकले।
दीपशिखा-