ग़ज़ल
1212. 1122. 1212. 22
ग़ज़ल
नज़र कभी हमीं से तुम चुरा के मत रखना
यों दूर आँखों से अपनी बसा के मत रखना
जो बस्ती यों जली थी वो हमारी थी बस्ती
बुझे ये आग हमेशा जला के मत रखना
ये आहटें दे रही हैं इशारे नफरत के
यों दुश्मनी को हमेशा बना के मत रखना
अँधेरा क्यूँ छा रहा है चमन में यूँ मेरे
होने दे रौशनी दीपक बुझा के मत रखना
बसे हो तुम मेरे ही दिल में जानता हूँ मैं
कभी ये दिल मेरा भी तुम दुखा के मत रखना
लगा है धड़कने अब दिल मेरा भी तो यारब
बचीं जो साँसें हैं यूँ ही छुपा के मत रखना
लगीं हैं बढ़ने ये मज़बूरियाँ भी अब क्यूँकर
यों चाहतों का भी दामन सजा के मत रखना
गिरह का शे’र
है मौत का ही ये तांडब जो आजकल देखा
कभी चराग सिरहाने जला के मत रखना
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र