ग़ज़ल – यूँ मरने का इरादा
यूं मरने का इरादा क्यों करुँ मैं
तिरी हसरत ज़ियादा क्यों करूँ मैं
हैं मेरी लरजिशें अंदाज़ मेरा
यूं अहदे तर्के बादा क्यों करूँ मैं
कुरेदेगा अगर इनको ज़माना
तो ज़ख्मों को कुशादा क्यों करूँ मैं
के जब मंज़िल मयस्सर ही नहीं है
सफ़र पूरा या आधा क्यों करूँ मैं
तुझे गर बेवफ़ाई की है आदत
वफ़ा का तुझसे वादा क्यों करूँ मैं