ग़ज़ल।बिंदास है कुहरा।
ग़ज़ल।विंदास है कुहरा।
आलम ठंडी का आसपास है कुहरा ।
अपनी इस जवानी में विंदास है कुहरा ।।
कुछ समय के लिये आ जाती निशाँ उतरकर ।
कभी हम पसन्द तो कभी विनास है कुहरा ।।
अलावे जलाकर बैठे लड़के जवान लोग ।
बूढ़े भी कहते अब अनायास है कुहरा ।।
इक किरण आकर रौशन करती ज़मी को ।
देख सूरज की तपिश ख़लास है कुहरा ।।
गर्मी जब बढ़ी कुहरे की परेसान है सूरज ।
देख लोगो की परेसानी उदास है कुहरा ।।
भला सूरज के सामने कहा तक लड़ता वह ।
हुआ बेबस, लाचार, हतास है कुहरा ।।
रात से है दुश्मनी सुबह तक आता नही ।
समय बदला हो गया निरास है कुहरा ।।
© राम केश मिश्र