ग़ज़ल।कि क़ातिल चैन से यारों हुक़ूमत पेश करते है ।
=================ग़ज़ल================
ज़िरह मुंसिफ़ वफ़ाई की ज़मानत पेश करते है ।
कि क़ातिल चैन से यारों हुक़ूमत पेश करते है ।
बहुत कम है बचे मुफ़लिश ख़ुदा को मानने वाले ।
उन्हें शक़ है मग़र झूठी इबादत पेश करते हैं ।
सफ़ऱ ऐ जिंदगी गर्दिश लुटा हर रहगुज़र रोया ।
दग़ा कर रहनुमां सारे मुरौव्वत पेश करते हैं ।
ढही बुनियाद क़ानूनी गवाहों के सबूतों दम ।
यकीं है सच भी मालुम पर दलीलत पेश करते हैं ।
दिवानों की नवाज़िश मे छिपी है रंजिसे साज़िश ।
सजाकर आँख मे आँसू मुहब्बत पेश करते हैं ।
जिहादी हो गये मसलन वफ़ा मे ज़ेर पैगम्बर ।
ख़ुदाई के लिये ख़ुद की ज़रूरत पेश करते है ।
लगा ले ज़ोर अजमाइस भले बख़्सेगी न दुनिया ।
डगर ऐ नर्क को रकमिश हि जन्नत पेश करते है ।
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✍ रकमिश सुल्तानपुरी