ग़ज़ल।इक आशियाना मिल गया ।
ग़ज़ल।आशियाना मिल गया ।
आदमी को खुदा, खुद का ठिकाना मिल गया ।
फ़र्ज ,शिक़वे रह गये साहिल पुराना मिल गया ।
बेदख़ल होने लगा है अब वजूदे हुस्न से वह ।
सरज़मी के पार जाने का बहाना मिल गया ।।
आ रही थी बनके छाया रात हर दीदार करने ।
वक्त की बंदिश हटी मौका सुहाना मिल गया ।।
एकतरफ़ा प्यार से क़ायल रही जो उम्र भर ।
उम्र रूठी ,मौत को बेशक दीवाना मिल गया ।
दौलतों की शाने शौक़त हो गयी ख़ामोश देखो ।
लुट गया, खुद लूटकर सारा खज़ाना मिल गया ।।
आज तू ख़ामोश रोयेगा जबाना फ़र्क़ किसको ।
क़हक़हे दो चार दिन मातम मनाना मिल गया ।।
सो गये “रकमिश”न जाने लोग कितने शौक़ से । ।
जिंदगी को मौत का इक आशियाना मिल गया ।
रामकेश मिश्र”रकमिश”