होता ना शरीर राख
सदियों से देख रहा है मन
राहें अपनी बिछा के नयन
ओ एक रोज आएगा मिलने
यही देख रहा है रोज सपने
खुद का दिल बहलाके
एक क्षण ना करता शयन
रहता खुद में मग्न
बस दिन-रात करता उसका चिंतन
माथे पे आ जाते शिकंज
उससे ना रहता किसी का ध्यान
कभी हंसता तो कभी हो जाता मौन
प्यार करके उसने खोया चैन
ऐ रोग देती हैं कैसी अग्न
होता ना शरीर राख
ना रहता मन अपने पास
जब से उसे देखा है
बस उसी का ख्याल आता है
जितना चाहूं करूं खुद का जतन
रहता ना मन कभी भी मग्न।।नीतू साह