है जरूरी हो रहे
गीत…
है जरूरी हो रहे बिखराव को जब रोकना।
क्यों नहीं कर पा रहे सब मानने से हैं मना।।
खो रहे गुरुता सभी संबंध अब परिवार में।
हो रहे बदलाव मानव के सभी व्यवहार में।।
प्यार के बदले बहस से हो रहा है सामना।
क्यों नहीं कर पा रहे सब मानने से हैं मना।।
छोड़ बेटे दे रहे हैं साथ अपनी छाँव को।
चाहते छूना नहीं अब वे बड़ो के पाँव को।।
डबडबायी आँख कहने है लगी हर वेदना।
क्यों नहीं कर पा रहे सब मानने से हैं मना।।
हो रहा खंडित हमारा आपसी सद्भाव है।
बढ़ रहा मन में सभी के द्वेषवश दुर्भाव है।।
होड़ यह कैसी नहीं हठ चाहते हैं छोड़ना।
क्यों नहीं कर पा रहे सब मानने से हैं मना।।
बेबशी इसको कहें या वक्त का है फैसला।
यूँ लगा जैसे सभी को भा रहा है फासला।।
चाहते यदि दुर्गुणों की खाइयों को पाटना।
क्यों नहीं कर पा रहे सब मानने से हैं मना।।
है जरूरी हो रहे बिखराव को जब पाटना।
क्यों नहीं कर पा रहे सब मानने से हैं मना।।
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)