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22 Jul 2016 · 1 min read

है चादर जिनके सर पे मुफलिसी’ की।

है चादर जिनके सर पे मुफलिसी’ की”
घड़ी भारी है उनको ज़िन्दगी’ की”

मिलेगी ज़िन्दगानी उन पे मर के”
सबब ये है जो मैं ने खुदक़ुशी’ की।

हैं दुशमन वो ही जिनके रास्तों में”
जला के खुद को हमने रौशनी’ की।

समंदर तुझको गर है ज़ोम ए बुसअत”
नहीं है हद मेरी भी तिशनगी’ की।

वहाँ पर पारसा भी घूमते हैं”
बड़ी शोहरत है यारो उस गली’ की।

अरे बेदार अब तो हो जा इंसाँ”
ख़सारे में है दौलत ज़िन्दगी’की।

जमील अपनी मुहाफिज़ हैं हवाएं”
ज़रूरत क्या है हमको रहबरी’ की।

3 Comments · 275 Views

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