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3 Nov 2016 · 3 min read

लोककवि रामचरन गुप्त का लोक-काव्य +डॉ. वेदप्रकाश ‘अमिताभ ’

लोककवि रामचरन गुप्त की रचनाओं को पढकर यह तथ्य बार-बार कौंधता है कि जन-जन की चित्त-शक्तियों का जितना स्पष्ट और अनायास प्रतिबिम्बन लोक साहित्य में होता है, इतना शिष्ट कहे जाने वाले साहित्य में नहीं | लोक कवि एक ओर तात्कालिक और कालांकित कहे जाने वाले प्रश्नों और घटनाओं से तुरंत प्रभावित होता है | दूसरी ओर जन-आस्था में धंसे मूल्यों और मिथकों को अपनी निर्ब्याज अभिव्यक्ति में सहज ही समाहित कर लेता है | रामचरन गुप्त ने महात्मा गांधी की हत्या से लेकर भारत-पाक-चीन युद्ध आदि की जनमानस में प्रतिक्रियाओं को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है | गांधी जी-वामपंथियों, कल्याण सिंह, काशीराम आदि के लिए भर्त्सना के विषय हो सकते हैं, लेकिन जन-साधारण उन्हें ‘महात्मा ’ ‘संत ’ और अहिंसा का पुजारी ही मानता रहा है | रामचरन गुप्त ने नाथूराम गौडसे को सम्बोधित रचना में इसी सामूहिक मनोभाव को व्यक्त किया है-
नाथू तैनें संत सुजानी
बापू संहारे |
इसी प्रकार पाक-चीन युद्धों के समय कथित बुद्धिजीवी भले ही सोचते रहें ‘ युद्ध ‘ बहुत घृणित है या यह धारणा बना ली जाए कि चीन के साथ युद्ध में भारत की गलती थी | जन-साधारण यह सब नहीं सोचता, न सोचना चाहता है | उसके लिए विदेशी आक्रमण अपवित्र कर्म है और वह उसका मुंह-तोड़ उत्तर देने के लिए संकल्पबद्ध होता है –
अरे पाक ओ चीन
भूमी का लै जायेगौ छीन
युद्ध की गौरव-कथा कमीन
गढ़ें हम डटि- डटि कैं |
मंहगाई जैसी तात्कालिक परेशानियों से क्षुब्ध और संतप्त जनमानस की पीड़ा को अपनी एक रचना में मुखर करते हुए श्री गुप्त ने पाया है कि सन-47 में केवल राजनीतिक आज़ादी मिली थी | जन-साधारण आर्थिक आज़ादी चाहता है-
एक-एक बंट में आबे रोटी
भूखी रोबे मुन्नी छोटी
भैया घोर ग़रीबी ते हम कब होंगे आजाद ?
इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि रामचरन गुप्त की रचनाओं में अपने समय का साक्ष्य बनाने की शक्ति है | वे केवल यथार्थ-वर्णन तक सीमित नहीं रहते, उनकी जन-धर्मी दृष्टि भी रचनाओं में उभरती है | कुछ रचनाओं में उनका साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण ठेठ ढंग से व्यक्त हुआ है –
1. पहलौ रंग डालि दइयो तू विरन मेरे आज़ादी कौ
और दूसरौ होय चहचहौ इन्कलाब की आंधी कौ,
एरे घेरा डाले हों झाँसी पे अंगरेज ……….
2. हमने हर डायर को मारा हम ऊधमसिंह बलंकारी
हम शेखर हिन्द-सितारे हैं, हर आफत में मुस्कायेंगे |

श्री गुप्त की रचनाएँ फूल-डोल, मेलों और रसिया-दंगलों में गाने के निमित्त रचित हैं | लोकमानस में विद्यमान राम-केवट सम्वाद, श्रवणकुमार-निधन और महाभारत के सन्दर्भों की लोक साहित्य में एक खास हैसियत है | इनके माध्यम से अनपढ़ जनता तक ‘विचार’ का सम्प्रेषण सफलतापूर्वक सम्भव होता है –
“ प्रभु जी गणिका तुमने तारी, कीर पढ़ावत में | वस्त्र-पहाड़ लगायौ, दुस्शासन कछु समझि न पायौ, चीर बढ़ावत में | राम भयौ वन-गमन एक दम मचौ अवध में शोर | रज छु उड़ी अहिल्या छन में “ आदि पदों से प्रत्यक्ष है कि रामचरन गुप्त के लोककाव्य में पुराख्यानों और मिथकों की उपस्थिति ‘ अभिव्यंजना ‘ को प्रखर बनाती है |रसिया-दंगलों में लोक-कवियों को चमत्कार-प्रदर्शन का आश्रय भी लेना पड़ता है | यह चमत्कार पद्माकर जैसे सिद्ध कवि की शब्द-क्रीड़ा का स्मरण दिलाता है –
।। पंडित परम पुनीत प्रेम के ।।
दुर्बल दशा दीनता देखी दुखित द्वारिकाधीश भये
दारुण दुःख दुःसहता दुर्दिन दलन दयालू द्रवित भले
सो सत्य सनेही संग सुदामा के श्री श्याम सुपाला
ए दीनन पति दीन दयाला।
अस्तु, अलीगढ़ के जनकवि खेम सिंह नागर, जगनसिंह सेंगर आदि की तरह श्री गुप्त भी उच्चकोटि के लोककवि हैं |
——————————————————————-
डॉ. वेदप्रकाश ‘ अमिताभ’, डी. 131, रमेश विहार, ज्ञान सरोवर, अलीगढ़ -202001, moba.-09837004113

Language: Hindi
Tag: लेख
453 Views
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