हूँ रक्त मैं, तो भी विरक्त!
हूँ रक्त मैं, तो भी विरक्त!
आखिर किस अकथ और अतृषित
इच्छा के वशीभूत होकर मैंने ये कहा,
मायने नही रखता,
बल्कि यह तो तुम्हारा पहले मुझे आगोश में समेटकर
तदन्तर उस विस्मृत कर देने वाली प्रवर्ति का परिणाम हैं
बल्कि यह तो उस प्रवर्ति का परिणाम है जिसमे थमा दिया तुमने मेरे हाथ में एक झुनझुना ,
निकालकर घुंघुरू उसके फिर कहा
‘इसे बजाओ।’
क्षोभ की उस अनंत सीमा तक ,
जिसमे कभी तुम अहंकारी हुई, कभी मैं अहंकारी हुआ
जिसमे कभी जीर्ण रहा मैं, और कभी शक्त,
बरबस ही कह उठा
हूँ रक्त मैं, तो भी विरक्त!
क्योंकि बजता रहता है
टन-टन-टन एक दुर्निवार आर्तनाद…
विव्हल करता है मुझे हरबार,
और जमाना कहता है कि सुन ले
मंदिरों की घंटियाँ बज रही है
देखा मैंने कभी तर्क को, दंतकथाओं के ऊपर आते
कभी नीचे जाते,
हिचकोले खाता रहा मैं ,
और अंततः समन्वय का नया सूत्र भी पा लिया
तो भी यह अंत नही था ,
बना असत्य वाला कृष्ण, बना असत्य वाला भक्त,
हूँ रक्त मैं, तो भी विरक्त!
– नीरज चौहान