हिन्दी का संबल
अगर न मिलता हिन्दी का संबल,
क्या हिमालय पहरा देता,
कल आज और कल ?
क्या विचारों की गंगा
बहती यूँ ही अविरल ?
क्या उगलती सोना धरती ?
क्या उगती गुड़ की फसल ?
क्या तिरंगा यूँ लहराता ?
क्या चलते खेतों में हल ?
मैं और तुम कभी हम न बनते
कहाँ से आता एका और बल ?
अखण्ड भारत की परिकल्पना
क्या हो पाती कभी सफल ?
अगर न मिलता हिन्दी का संबल …
न टूटती दासता की जंज़ीरें
कैद में होती सबकी तक़दीरें
ख़्वाब वतन की आज़ादी का
धूमिल होता हर दिन हर पल ..
अगर न मिलता हिन्दी का संबल ..!
उत्तर से दक्षिण न मिलता,
न पश्चिम से पूरब .
खंड-खंड टुकड़ों टुकड़ों में
बटें हुए होते हम सब ..
फिर ख़्वाब ही बनकर रह जाता
आने वाला सुनहरा कल ..
अगर न मिलता हिन्दी का संबल ..
हम जो होते मगध निवासी,
तो तुम कहलाते काशी वासी,
अपने पुरखों की भूमि पर
कोई न होता भारतवासी ..
सोचो तनिक फिर कौन निगलता
महजब-मंथन का हलाहल ?
अगर न मिलता हिन्दी का संबल …
—— जितेन्द्र जीत