हास्य व्यंग्य (आल्हा छन्द)
क्या दिन थे आनन्द भरे वे, हरपल रहता था उल्लास
आगे जीवन ऊबड़ खाबड़, तनिक न था इसका आभास
बीबी बच्चों के चक्कर में, स्वप्न हुए अब तो इतिहास
आफत आन पड़ी है मुझपर, दोस्त उड़ाते हैं उपहास
कभी उड़ा था नील गगन में, मैं भी अपने पंख पसार
पंख लगाकर समय उड़ा वो, हुआ बिना पर मैं लाचार
जीवन अपना शुष्क धरा सा, मस्ती का उजड़ा संसार
ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कभी नहीं था किया विचार
जाने कौन घड़ी थी वो भी, जब शादी का किया ख़याल
किस्मत ऐसी फूटी भइया, भूल गया खुद का सब हाल
जीवन अपना नरक हुआ अब, बात बात पर मचे बवाल
हाय! नतीजा है ये अब तो, सर पर नहीं एक भी बाल
बिल्ली सी आवाज हुई अब, करूँ न घर में कोई शोर
वफादार बन श्वान सरीखा, घूमूँ उनके चारो ओर
बाहर का मैं शेर भले पर, घर में बकरी सा कमजोर
फिर भी जग वालो से बोलूँ, अजी! मोरनी वह मैं मोर
लाख करूँ मैं कोशिश फिर भी, सभी कोशिशें हो बेकार
हथ गोले बम बर्षक बनते, भरे शेरनी जब हुंकार
घर के अंदर बर्तन बाजे, बाहर आती है झनकार
देख लड़ाई बच्चे बिलखें, निकल पड़े असुवन की धार
अगर करूँ मैं अपने दिल की, घर में आ जाये भूचाल
सज धज कर मैं बाहर जाऊँ, ऐसी अपनी नहीं मजाल
देर करूँ गर घर आने में, शक्की बीबी करे सवाल
लंबे बाल दिखें कपड़ों पर, फिर तो आया मेरा काल
दिखा घरेलू हिंसा का डर, दे वो धमकी बारम्बार
संसद भी अब देती केवल, नारी को ही सब अधिकार
नर का दर्द न समझे कोई, नहीं लिखे कोई अखबार
हर घर की हैं यहीं कहानी, हर घर की है वो सरकार
कहाँ तलक मैं विपदा गाऊँ, नैया फँसी बीच मझधार
माया रूपी यह दलदल है, यहाँ न कोई तारण हार
लगता है अब मुझे उम्र भर, रहना होगा मन को मार।
हुआ भोर तो टूटा पल में, सपना था कितना बेकार
नाथ सोनांचली