हाय पड़ोसन(हास्य रचना)
मुक्त काव्य स
हास्य-रचना
विधा-16, 14
“हाय पड़ोसन”
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डाल पड़ोसन तिरछी नज़रें मंद-मंद मुस्काती है
सुखा केश घुँघराले अपने छज्जे पर इठलाती है।
देख घटा में सुंदर चंदा मन में आहें भरता हूँ
बना बहाना दाढ़ी का मैं दर्पण को फिर तकता हूँ।
मुझे खोजती नज़रें उसकी छज्जे पर वो नित आती
रस्सी पर कुछ वस्त्र डाल कर ताक ओट से इतराती।
शुरू हो गई ताँका-झाँकी अब पड़ौस ही मन भाया
समाचार पढ़ने का अद्भुत मैंने इक ढोंग रचाया।
गुन-गुन करती छज्जे पर जब आज सवेरे वो आई
बाँह थाम चुंबन लेने को मेरी तबियत अकुलाई।
भूल गया झटके में सब कुछ सुधबुध मैंने बिसराई
पाँव पड़ा पोंछे पर मेरा पत्नी मेरी झुँझलाई।
लगा ठहाका हँसी पड़ोसन उसके हाथों छला गया
मार पड़ी झाडू की सिर पर सारा रुतबा चला गया।
देख पड़ोसी को छज्जे पर अब पत्नी बाहर आती
हाथ थाम कर लौकी-बेलन मुझसे पौंछा लगवाती।
देख पड़ोसी को अपने घर हर दिन नफ़रत ढोता हूँ
पास-पड़ोस रास न आया किस्मत को मैं रोता हूँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका -साहित्य धरोहर
वाराणसी