हाइकु – डी के निवातिया
हाइकु
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ऊँघती धरा,
भरे जो अंगड़ाई,
क्रूर क्रंदन !!
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ओस की बूँद
ललाट सजाकर,
रिझाते पुष्प !!
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बसंत राग,
गाता है जब फाग,
झूमती धरा !!
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मधुमास में,
गुर्राते घन करें
अठखेलियां !!
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टूटते गिरी,
उफनती नदियां
रोष जताते !!
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बैलो के संग,
स्वयं को भी हाँकता,
बूढ़ा किसान !!
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स्वरचित मौलिक
हाइकुकार : डी के निवातिया