हर रात मेरे साथ ये सिलसिला हो जाता है
मैं सोती हूं बिस्तर पर तो तकिया गीला हो जाता है,
फिर जैसे शायरियों का काफिला हो जाता है।
और जब तक जज्बात न लिख दूं नींद नहीं आती
हर रात मेरे साथ ये सिलसिला हो जाता है।।
मन मेरा जैसे कुछ उतर सा जाता है,
ख्वाइशों का बोझ जैसे कुछ हट सा जाता है।
मैं फिर और रोती हूं
और अगली सुबह जैसे कुछ नया हो जाता है।।
दो पल की न खुशी, न सांस आती है,
जिंदगी से तंग आ चुकी हूं, ये न रास आती है।
कभी कभी तो एक जिंदा लाश बन जाती हूं
न भूख आती है ना प्यास आती है।।
फिर तबियत बिगड़ने पर खुद को संभालती हूं,
कोई पूछेगा हाल मेरा ये भ्रम मैं पालती हूं।
पर सब मतलबी लोग होते है कोई नही हाल पूछता मेरा
मैं फिर खुद को खुद से पुकारती हूं।।